Book Title: Agam Sampadan Ki Yatra
Author(s): Dulahrajmuni, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 165
________________ १५२ आगम-सम्पादन की यात्रा १. सामायिक-चारित्र-विनय । २. छेदोपस्थापनीय-चारित्र-विनय । ३. परिहार-विशुद्ध चारित्र-विनय । ४. सूक्ष्मसंपराय-चारित्र विनय । ५. यथाख्यात-चारित्र-विनय । ४. मन-विनय यह दो प्रकार का है १. अप्रशस्त मन-विनय-जो मन सावध, सक्रिय, कर्कश, कटुक, निष्ठुर, परुष, प्रमाद आदि आश्रवों का सेवन करने वाला, छेद-भेद करने वाला परिताप, उद्रवण और प्राणियों का हनन करने वाला है, वह अप्रशस्त मन है। जब मन इनमें व्याप्त रहता है, तब वह अप्रशस्त मन-विनय है। २. प्रशस्त मन-विनय-उपरोक्त क्रियाओं से विरत मन का प्रवर्तन प्रशस्त मन-विनय कहलाता है। ५. वचन-विनय मन-विनय की भांति इसके भी दो भेद हैं-प्रशस्त-वचन विनय और अप्रशस्त-वचन-विनय। अवान्तर भेद भी इसी की तरह हैं। ६. काय-विनय यह दो प्रकार का है-प्रशस्त काय-विनय और अप्रशस्त काय-विनय । अप्रशस्त काय-विनय यह सात प्रकार का है१. अनायुक्त-गमन असंयमी व्यक्ति का अथवा अयतना पूर्वक गमन । २. अनायुक्त स्थान । ३. अनायुक्त-निषीदन। ४. अनायुक्त-शयन। ५. अनायुक्त-उल्लंघन। ६. अनायुक्त-प्रलंघन। ७. अनायुक्त-सर्वेन्द्रिय काय-योग-युक्तता-समस्त इन्द्रियों का असंयमित व्यापार।

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