Book Title: Agam Sampadan Ki Yatra
Author(s): Dulahrajmuni, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 163
________________ १५० आगम-सम्पादन की यात्रा __थावच्चापुत्र ने कहा-'सुदर्शन! हमारे धर्म का मूल ‘विनय' है । वह विनय दो प्रकार का है-आगार-विनय और अनागार विनय। पांच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह प्रतिमाएं-यह आगार-विनय है। पांच महाव्रत, अठारह पाप-विरति, रात्रिभोजन-विरति, दसविध प्रत्याख्यान और बारह भिक्षु प्रतिमाएं यह अनागार-विनय है।' ___ दशवैकालिक सूत्र में विनय शब्द वचन-नियमन, आचार और नम्रताअनुशासन-इन तीन अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। “विनय' जिनशासन का मूल है। यहां विनय का अर्थ आचार है। कई इस प्रसंग में भी विनय का अर्थ 'नम्रता' करते हैं। परन्तु यह उपयुक्त नहीं। क्योंकि निर्ग्रन्थ-प्रवचन 'विनयवादी' नहीं है, वह क्रियावादी है। जैन शासन में आभ्यन्तर-तप के छह प्रकारों में विनय दूसरा प्रकार है। औपपातिक सूत्र में उसके भेद-प्रभेदों की लम्बी श्रृंखला है। उनका विशद विवेचन हमें टीका-ग्रन्थों में उपलब्ध होता है। विनय के मूल भेद सात हैं १. ज्ञान-विनय २. दर्शन-विनय ३. चारित्र-विनय ४. मन-विनय ५. वचन-विनय ६. काय-विनय ७. लोकोपचार-विनय । १. ज्ञान-विनय इसका अर्थ है-ज्ञान सीखना, ज्ञान का प्रत्यावर्तन करना, ज्ञान को आचरण में उतारना, ज्ञान तथा ज्ञानी के प्रति बहुमान करना आदि । ज्ञान-विनय पांच प्रकार का है१. आभिनिबोधिक ज्ञान-विनय । २. श्रुतज्ञान-विनय। ३. अवधि-ज्ञान-विनय। ४. मनःपर्यव-ज्ञान-विनय। ५. केवलज्ञान-विनय २. दर्शन विनय वीतराग के द्वारा समस्त भावों में यथार्थरूप से श्रद्धा करना दर्शनविनय है। इसके प्रधानतः दो भेद हैं

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