Book Title: Agam Sampadan Ki Yatra
Author(s): Dulahrajmuni, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 162
________________ आगमों में विनय १४९ ये सभी परीषह नौवें गुणस्थान तक हो सकते हैं। दशवें गुण स्थान में चारित्र मोहनीय कर्म के उदय से होने वाले अरति आदि सात परीषह तथा दर्शन-मोहनीय से उत्पन्न दर्शन को छोड़कर शेष चौदह परीषह होते हैं। छद्मस्थ वीतराग अर्थात् ११वें १२वें गुणस्थानवर्ती मुनि में भी ये ही चौदह परीषह हो सकते हैं। केवली में केवल वेदनीय-कर्म के उदय से होने वाले ग्यारह परीषह पाए जाते हैं। ___ एक साथ एक प्राणी में उत्कृष्टतः बीस परीषह (शीत-उष्ण में से कोई एक तथा चर्या-निषधा में से कोई एक) हो सकते हैं और जघन्यतः कोई एक परीषह हो सकता है। तत्त्वार्थ सूत्र में एक साथ उन्नीस परीषह माने हैं। जैसे शीत और उष्ण में से कोई एक होता है। शय्या परीषह के होने पर निषधा-चर्या परीषह नहीं होते तथा चर्या-परीषह होने पर शय्या और निषधा परीषह नहीं होते। __बौद्ध भिक्षु काया-क्लेश को महत्त्व नहीं देते, किन्तु परीषह सहन की स्थिति को वे भी अस्वीकार नहीं करते। स्वयं महात्मा बुद्ध ने लिखा है - 'मुनि शीत, उष्ण, क्षुधा, पिपासा, वात, आतप, दंश और सरीसृप का सामना कर खग विषाण की तरह अकेला विहरण करे।' ३२. आगमों में विनय उत्तराध्ययन के प्रथम अध्ययन का नाम 'विनय-श्रुत' है। इसका अर्थ है-विनय का ज्ञापक श्रुत । इसमें विनय का व्यापक निरूपण हुआ है। फिर भी विनय की दो धाराएं अनुशासन और नम्रता अधिक प्रस्फुटित हैं। आगम-ग्रन्थों में 'विनय' शब्द अनेक अर्थों में प्रयुक्त हुआ है। सुदर्शन ने थावच्चापुत्र अनगार से पूछा-'भगवन्! आपके धर्म का मूल क्या है?' १. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ८०। २. वही, गाथा ८३। ३. ९।१० श्रुतसागरीय वृत्तिपृष्ठ २९९ । ४. सुत्तनिपात-उरंगवगा ३।१८ सीतं च उण्हं च खुदं पिपासं वातावपे डंसं सिरिंसपे च। सव्वानि मेतानि अभिसंभवित्ता एगोचरे खग्ग विसाण कप्पो।

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