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आगम-सम्पादन की यात्रा व्याख्या मूल उत्तराध्ययन के पद्य और दर्शन-परीषह से भिन्न है। उत्तराध्ययन में जो अज्ञान-परीषह की व्याख्या है वह श्रुतसागरीयवृत्ति में अदर्शन की व्याख्या है।
इन बाईस परीषहों के स्वरूप के अध्ययन से यह ज्ञात होता है कि कई परीषह सामान्य व्यक्तियों के लिए नहीं थे। वे जिनकल्पप्रतिमा को स्वीकार करने वाले विशेष सहिष्णु और धृतियुक्त मुनियों के लिए थे। शान्त्याचार्य ने भी इस ओर संकेत किया है। उनके अनुसार अचेल (जहां हम इसका अर्थ नग्नता करते हैं) परीषह जिनकल्पी मुनियों के लिए तथा ऐसे स्थविरकल्पी मुनियों के लिए ग्राह्य है जिन्हें वस्त्र मिलना अत्यन्त दुर्लभ है, जिनके पास वस्त्रों का अभाव है, जिनके वस्त्र जीर्ण हो गए हैं अर्थात् जो वर्षादि के बिना वस्त्र धारण नहीं कर सकते और तृणस्पर्श-परीषह केवल जिनकल्पी मुनियों के लिए ग्राह्य है।
प्रवचनसारोद्धार की टीका में सर्वथा नग्न रहना तथा चिकित्सा न कराना, केवल जिनकल्पी मुनियों के लिए ही बतलाया है।'
व्याख्याकारों ने सभी परीषहों के साथ कथाएं जोड़कर उन्हें सुबोध बनाया है। कथाओं का संकेत नियुक्ति में भी प्राप्त है। परीषह उत्पत्ति के कारण
ज्ञानावरणीय कर्म-१. प्रज्ञा, २. अज्ञान । अन्तराय कर्म-१. अलाभ।
चारित्र मोहनीय कर्म-१. अरति, २. अचेल ३. स्त्री ४. निषधा ५. याचना ६. आक्रोश ७. सत्कार-पुरस्कार।
दर्शन मोहनीय कर्म-दर्शन।
वेदनीय कर्म-क्षुधा, पिपासा, शीत, उष्ण, दंश-मशक, चर्या, शय्या, वध, रोग, तृणस्पर्श, जल्ल । १. उत्तराध्ययन २।४२, श्रुतसागरीय वृत्तिपत्र २९५ । २. वृहद्वृत्तिपत्र ९२,९३। ३. वही पत्र १२२। ४. पत्र १९३,९४। ५. उत्तराध्ययननियुक्ति, गाथा ७४-७९ ।