Book Title: Agam Sampadan Ki Yatra
Author(s): Dulahrajmuni, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 159
________________ १४६ आगम- सम्पादन की यात्रा सत्कार का अर्थ है-प्रशंसा करना और पुरस्कार का अर्थ है किसी कार्य में किसी को प्रधान बनाना, परामर्श के योग्य बनाना । अन्य व्यक्तियों द्वारा सत्कार - पुरस्कार न किये जाने पर जो मुनि ऐसा विचार नहीं करता कि 'मैं चिरतपस्वी हूं, मैंने अनेक बार प्रतिवादियों को शास्त्रार्थ में पराजित किया है, फिर भी कोई मुनि मेरी भक्ति नहीं करता, आसन आदि नहीं देता, वन्दना नहीं करता'। वे मिथ्यादृष्टि अच्छे हैं, जो अपने पक्ष के अल्पशास्त्रज्ञ तपस्वी को या गृहस्थ को भी सर्वज्ञ की संभावना से सम्मानित करते हैं, पूजा करते हैं, परन्तु ये मेरे तत्त्वज्ञ साधु अपने प्रवचन की प्रभावना के लिये भी मुझ जैसे तपस्वी का सत्कार नहीं करते। जो तपस्वी होता है, उसकी देवता भी पूजा करते हैं - यह बात मिथ्या है। यदि यह बात मिथ्या नहीं है तो मेरे जैसे तपस्वियों की देव पूजा-अर्चा क्यों नहीं करते? जो इस प्रकार दुर्ध्यान नहीं करता, वह सत्कारपुरस्कार - परीषह पर विजय पा लेता है । २०. प्रज्ञा - परीषह मुनि प्रज्ञा - परीषह को सहन करे । मनोज्ञ- प्रज्ञा होने पर भी गर्व न करे । बुद्धि का अतिशय न होने पर भी दीन न बने, उसे कर्म का विपाक मान कर सहे । प्रज्ञा का अर्थ है - बुद्धि का अतिशय । जो मुनि तर्क, व्याकरण, साहित्य, छन्द आदि विद्याओं में निपुण होने पर भी ज्ञान का मद नहीं करता, जो यह गर्व नहीं करता कि प्रवादी मेरे सामने से उसी प्रकार से भाग जाते हैं जिस प्रकार सिंह के शब्द को सुन कर हाथी । 'मैं कुछ नहीं जानता, मैं मूर्ख हूं, मैं सबसे पराजित हूं’–इस प्रकार के विचारों से जो संतप्त नहीं होता, वह प्रज्ञापरीषह पर विजय पा लेता है I २१. अज्ञान - परीषह मुनि अज्ञान से उत्पन्न कष्ट को समभाव से सहे। मैं तपस्या, उपध्यान आदि विशद-चर्या से विहरण करता हूं, फिर भी मेरा छद्म (ज्ञानावरणीय कर्म ) निवर्तित नहीं होता, ऐसा चिन्तन न करे । 'मैं मैथुन से निवृत्त हुआ, मैंने इन्द्रिय और मन का संवरण किया', 'यह सब निरर्थक है'; क्योंकि 'धर्म कल्याणकारी है' - 'यह मैं साक्षात् नहीं जानता' - मुनि ऐसा न सोचे ।

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