________________
१४५
उत्तराध्ययन और परीषह से वर्तन करे। किन्तु यह शास्त्रोक्त विधि क्या है? इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं है। १७. तृण-स्पर्श-परीषह
मुनि तृण आदि के स्पर्श से उत्पन्न वेदना को सहन करे। उसकी चुभन और गर्मी से पीड़ित हो वस्त्र का सेवन न करे।
'मुनि चर्या, शय्या और निषधा में प्राणी-हिंसा का वर्जन करता हुआ सदा अप्रमत्त रहे और तृण, कांटे आदि से उत्पन्न वेदना को समभाव से सहे।
'गच्छनिर्गत या गच्छवासी मुनि उन तृणों को कुछ गीली भूमि पर बिछा कर संस्तारक और उत्तरपट्टक को उस पर रख कर सोते हैं अथवा जिन मुनियों के वस्त्र चोरों ने अपहरण कर लिये हों वे मुनि अत्यन्त जीर्ण या छोटे से वस्त्र को उस बिछी हुई घास पर बिछा कर सोते हैं तब दर्भ के अत्यन्त तीक्ष्ण अग्रभाग से उनके शरीर में पीड़ा उत्पन्न होती है। जो उस वेदना से अधीर नहीं होता, वह तृणस्पर्श-परीषह पर विजय पा लेता है। ___ यह वस्त्र बिछाने की विधि भी उत्तरकालीन हो सकती है। मूल में यह आशय प्राप्त नहीं है। १८. मल-परीषह
मुनि मल, रज या ग्रीष्म के परिताप से शरीर के क्लिन्न हो जाने पर सुख के लिए विलाप न करे।
मुनि जीवनपर्यन्त अस्नान व्रतधारी होता है। शरीर में पसीना आने पर और उस पर धूल जम जाने पर भी नहीं खुजलाता, जो ऐसा विचार नहीं करता कि मेरा शरीर मलसहित है और इसको मलरहित (मैल से उत्पन्न दुर्गन्ध को दूर) करने के लिए स्नान की अभिलाषा नहीं करता, वह मलपरीषह पर विजय पा लेता है। १९. सत्कार-पुरस्कार परीषह
मुनि सत्कार-पुरस्कार की इच्छा न करे। दूसरे को सम्मानित होते देख अनुताप न करे। १. वृत्तिपत्र १९९। २. तत्त्वार्थसूत्र-श्रुतसागरीय वृत्तिपृष्ठ २९४ । ३. प्रवचनसारोद्धार, वृत्तिपत्र १९४। ४. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६८६ में 'सत्कार' परीषह है।