________________
१४२
आगम-सम्पादन की यात्रा जो सदा कच्छप की भांति इन्द्रियों और मन का संयमन करता है, वह स्त्रीपरीषह पर विजय पा लेता है। ९. चर्या-परीषह
मुनि चर्या से उत्पन्न कष्ट को सहन करे। मुनि ममत्व न करे, गृहस्थों से निर्लिप्त रहे, अनिकेत रहता हुआ परिव्रजन करे।
जो मुनि चिरकाल तक गुरुकुल में रहता है, बन्ध-मोक्ष आदि का मर्म जानता है, जो संयम के लिए यतिजन की विनय-भक्ति के लिये तथा गुरु की आज्ञा से देशान्तर जाता है, जो वायु की तरह निस्संग होता है, जो कायक्लेश को सहता है, जो देश-काल के अनुसार संयम के प्रति अविरुद्ध गमन करता है, जो कण्टक आदि की बाधाओं को बाधा नहीं मानता, जो गृहस्थावस्था में प्रयुक्त वाहन आदि का चिन्तन नहीं करता, जो अप्रतिबद्ध विहारी होता है, जो ग्राम, नगर, कुल आदि के ममत्व में नहीं बंधता, वह चर्यापरीषह पर विजय पा लेता है। १०. निषधा'-परीषह ____ मुनि निषधा से उत्पन्न कष्ट को सहन करे, राग-द्वेष रहित हो, अशिष्टचेष्टाओं का वर्जन करता हुआ बैठे, किसी को त्रास न दे।
जो मुनि श्मशान, वन, पर्वतों की गुफाओं में निवास करता है, जो सिंहहाथी आदि के शब्दों को सुनकर भयभीत नहीं होता, जो नियतकाल के लिए वीरासन, कुक्कुटासन आदि आसन (निषधा) को ग्रहण करता है, परन्तु देव, तिर्यंच, मनुष्य और अचेतन पदार्थों से उत्पन्न उपसर्गों से विचलित नहीं होता–अपकार की शंका से डरकर स्थान को नहीं छोड़ता और जो मंत्र आदि के द्वारा किसी भी प्रकार का प्रतिकार नहीं करता, वह निषधापरीषह पर विजय पा लेता है। ११. शय्या-परीषह
मुनि शय्या से उत्पन्न परीषह को सहन करे, किन्तु उत्कृष्ट या निकृष्ट उपाश्रय को पाकर मर्यादा का अतिक्रमण न करे-हर्ष या शोक न लाए। एक
१. प्रवचनसारोद्धार, गाथा ६८५ में 'नषेधिकी' परीषह माना है और टीकाकार ने
(पत्र १९३ में) विकल्प में निषधा-परीषह को मानकर दोनों की व्याख्या की है।