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उत्तराध्ययन और परीषह
१३९ १४. याचना १५. अलाभ १६. रोग १७. तृण-स्पर्श १८. मल १९. सत्कारपुरस्कार २०. प्रज्ञा २१. अज्ञान २२. दर्शन ।
___ इनमें दर्शन-परीषह और प्रज्ञा-परीषह ये दो मार्ग से अच्यवन में सहायक होते हैं और शेष बीस परीषह निर्जरा के लिए होते हैं।' परीषहों का स्वरूप और उनकी विजय के उपाय १. क्षुधा-परीषह
___ मुनि भूख को सहन करे, किन्तु उसे मिटाने के लिए पचन-पाचन आदि न करे।
मुनि निरवद्य आहार की एषणा करता है। आहार के न मिलने पर या थोड़ा मिलने पर भी वह अकाल और अयोग्य देश में आहार-ग्रहण नहीं करता, छह आवश्यकों की थोड़ी भी हानि नहीं करता, सदा ज्ञान-ध्यान और भावना में लीन रहता है, अनेक बार अनशन, अवमौदर्य आदि करने से तथा नीरस भोजन के सेवन से जिसका शरीर सूख गया है, क्षुधा की वेदना होने पर भी जो उसकी चिन्ता नहीं करता और जो भिक्षा के अलाभ को भी अपने लिए मान लेता है वह क्षुधापरीषह पर विजय पा लेता है। २. पिपासा-परीषह
मुनि प्यास को सहन करे किन्तु उसे शान्त करने के लिए सचित्त जल का सेवन न करे।
जो मुनि स्नान का सर्वथा त्याग करता है, जो अतिक्षार, अतिस्निग्ध, अतिरूक्ष और अत्यन्तविरुद्ध भोजन के द्वारा तथा गर्मी, आतप, दाहज्वर और उपवास आदि के द्वारा तीव्र प्यास लगने पर सचित्त जल पीकर उसका प्रतिकार नहीं करता, किन्तु उसे समभाव से सहता है, वह पिपासापरीषह पर विजय पा लेता है। ३. शीत-परीषह
मुनि शीत को सहन करे, किन्तु उसके निवारण के लिए अग्नि का सेवन न करे। १. तत्र मार्गाच्यवनार्थं दर्शनपरीषहः प्रज्ञा परीषहश्च, शेषा विंशतिनिर्जरार्थम्
प्रवचनसारोद्धार, वृत्तिपत्र १९२।