Book Title: Agam Sampadan Ki Yatra
Author(s): Dulahrajmuni, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 134
________________ उत्तराध्ययन के तीन टीकाकार १२१ १।४७, ३।१२, ६।१, ८।१ में आया है। सरपेन्टियर ने यहां यह प्रश्न उपस्थित किया है कि शान्त्याचार्य 'नागार्जुनीय' के पाठों का उल्लेख क्यों करते हैं? और इसको समाहित करते हुए लिखते हैं कि आचार्य नागार्जुन 'देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण' के परम्परा-गुरु थे। अतः देवर्द्धिगणी के अन्य पाठान्तरों के साथ आचार्य नागार्जुन के पाठों को भी संगृहीत किया। गुरु के प्रति विशेष श्रद्धा प्रदर्शित करते हुए उनके नामोल्लेखपूर्वक पाठान्तरों का अपनी प्रतियों में उल्लेख किया है। इनकी टीका से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इन्होंने किसी एक ही पूर्वज का अनुसरण नहीं किया है। परन्तु उस समय में उपलब्ध सामग्री का यथोचित उपयोग किया। यही कारण है कि एक ही शब्द के समास-भेद से या परम्परा-भेद से वे अनेक अर्थ देने में समर्थ हए हैं। दूसरी बात है कि टीका में यत्र-तत्र विभिन्न ऐतिहासिक सामग्री भी मिलती है। (शान्तिसूरी ने अपनी टीका में विभिन्न कथाओं का संग्रह भी किया है। परन्तु ये कथाएं अत्यन्त संक्षिप्त हैं। इनका विस्तृत रूप नेमीचन्द्र की सुख-बोधा टीका में मिलता है। ल्यूमेन ने इस भिन्नता को लक्षित कर यह अनुमान किया है कि देवेन्द्र (नेमीचन्द्र) ने अपनी टीका में अन्यान्य स्रोतों से सामग्री एकत्रित की और विशेषतः दृष्टिवाद के चतुर्थ भाग से, जिनमें कि पौराणिक कथाएं और जीवनियां संदृब्ध थीं। परन्तु शान्तिसूरी ने ऐसा नहीं किया। यही कारण है कि वे 'उत्तराध्ययन परम्परा' को यथार्थ रूप में उपस्थित करते हैं और नेमीचन्द्र अन्यान्य सूत्रों की सामग्री से मिश्रित कर उसको रखते हैं। शान्तिसूरी ने दशवैकालिक सूत्र के श्लोकों का स्थान-स्थान पर उल्लेख किया है। इनका प्रमुख दृष्टिकोण सूत्रार्थ को स्पष्ट करने का रहा है, अन्यान्य सामग्री का विस्तार अनपेक्षित ही था। यह इस उदाहरण से स्पष्ट हो जाता है कि उत्तराध्ययन सूत्र में आठवें अध्ययन के तेरहवें श्लोक में लौकिक विद्या के द्योतक तीन शब्द प्रयुक्त हुए हैं-लक्खण (सं. लक्षणविद्या), सुविणं (सं. स्वप्न-विज्ञान), अंगविज्जं (सं. अंगविद्या)। ये तीनों विद्याएं भारतीय ऋषिमुनियों द्वारा फलित, पुष्पित और पल्लवित हुईं। इन पर अनेकानेक ग्रन्थ लिखे गए, विस्तृत व्याख्याएं लिखी गईं और क्रियात्मक अनुभूतियों का संचालन भी हुआ। जैनों के प्राचीनतम साहित्य 'पूर्वो' में इन विद्याओं का सर्वांगीण विवेचन भरा पड़ा था। इसका विवरण यत्र-तत्र उत्तरवर्ती साहित्य में उपलब्ध कई एक घटनाओं से मिलता है। लक्षण विद्या के प्रसंग में शान्त्याचार्य केवल एक ही श्लोक प्रस्तुत करते

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