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उत्तराध्ययन के तीन टीकाकार
१२५ चूर्णि अर्थ आदि के निश्चय में इतनी सहायक नहीं बनती, जितनी शान्त्याचार्य की टीका। फिर भी कई एक दृष्टियों से इसके प्राथमिक अध्ययन अवश्य बोद्धव्य हैं।
उत्तराध्ययन सूत्र के कार्य-काल में हमने इन तीनों (शान्त्याचार्य और नेमीचन्द्र की टीका, जिनदास की चूर्णि) का यथायोग्य उपयोग किया है। फिर भी जहां-जहां हमें जैन-परम्परा से विसंगति प्रतीत हुई है वहां हमने अपना मौलिक दृष्टिकोण रखा है और टिप्पण में उसका सकारण उल्लेख किया है। उत्तराध्ययन सूत्र का अनुवाद पूर्ण हो चुका है और पन्द्रह अध्ययनों की विस्तृत टिप्पणियां भी लिखी जा चुकी हैं। संभव है यह सारा कार्य चतुर्मास तक पूर्ण हो जाए। स्थान की नीरवता और एकान्तता ने इस कार्य-प्रगति में सहायता पहुंचाई है इसमें कोई सन्देह नहीं। इससे अधिक आचार्यप्रवर की उत्साहवर्द्धक प्रेरणा और कुशल निर्देशक मुनिश्री नथमलजी की कार्यनिष्ठा और सहयोगी सन्तों के श्रम से ही अल्प समय में यह गुरुतर कार्य हो सका है। अभी तो हम अन्वेषण कार्य के प्रथम सोपान पर हैं-मंजिल दूर है, परन्तु मुनिश्री बुद्धमल्लजी की उक्ति से 'चलते हैं जब पैर, स्वयं पथ बन जाता है' हम मंजिल के पास हैं-ऐसा अनुभव करते हैं। कार्यनिष्ठा का प्रत्येक चरण लक्ष्य की अविकल अनुभूति को लिए चलता है। जब वह अनुभूति पूर्णता को प्राप्त होती है तब स्वयं लक्ष्य कर्मनिष्ठ बन कर्मरत व्यक्ति में ओत-प्रोत हो जाता है।
सर्जक का कार्य है सर्जन करना। उसका उपयोग जन-मानस कितना कर सकता है, यह उसी पर निर्भर है। बीच में एक रेखा और है जो सर्जक और जन-मानस को जोड़ती है। वह है सत्ता की पांखों से उड़ान भरने वाली-कभी सही, कभी झूठी विद्वत् वर्ग या अधिकारी वर्ग की श्रेणी। वह रचयिता की रचना को कब, कैसे जनसाधारण के सामने उपस्थित करना है, यह जानती है। यदि यह तथ्य अनभिज्ञ रहता है तो वह उसे ही लील जाती है और तथ्य की अभिज्ञता होने पर भी यदि अकर्मण्यता होती है तो भी वह अपने उत्तरदायित्व के अग्निकुण्ड में भस्म हो जाता है। उत्तरदायित्व वह है जिसके निभाने में अपूर्व आत्मतोष होता है और उत्तरदायित्व के योग्य व्यक्ति वह है जिसमें जीवन की अनेक महत्त्वाकांक्षाएं अनवरत प्रज्वलित रहती हैं। अकर्मण्यता, आलस्य, कलह आदि दोष उत्तरदायी व्यक्ति को भी अनुत्तरदायी बना देते हैं इसे कार्यकर्ता न भूलें।