________________
१२४
आगम- सम्पादन की यात्रा और लगभग अन्तिम बारह-तेरह अध्ययनों की अत्यन्त संक्षिप्त । उनमें न अन्यान्य गाथाओं का संकलन ही है और न विशेष कथाएं भी हैं । नेमीचन्द्र की अन्य रचनाएं भी हैं, जिनमें 'महावीर चरित्र' एक अनुपम प्राकृत ग्रन्थ-रत्न है। इसकी रचना प्राकृत पद्यों में हुई और उसी 'अणहिल पाटन' नगर के दोहडि श्रेष्ठी की वसति में वह सं. ११४१ में समाप्त हुई थी । संभव है उत्तराध्ययन की टीका के पश्चात् वे अन्यान्य नगरों में विहार करते हुए पुनः उसी नगर में आए और उसी श्रेष्ठी के यहां रहकर यह रचना की । ' जिनदास
इस चूर्णि के कर्त्ता जिनदास महत्तर हैं - यह सुविदित है। फिर भी सरपेन्टियर आदि यह कहते हैं कि इस चूर्णि के कर्त्ता अज्ञात हैं। ऐसा कहने का वे यह आधार प्रस्तुत करते हैं कि शान्तिसूरी और नेमीचन्द्र ने अपनी टीकाओं में केवल - 'चूर्ण्य दृश्यते, चूर्णिकार, चूर्णिकृत' इतना मात्र उल्लेख किया है। परन्तु यह आधार गलत है। यह सर्वविदित तथ्य है कि बहुलांश में चूर्णि-ग्रन्थ के प्रणेता जिनदास महत्तर ही हैं और यह स्पष्ट है कि अनेक आगमों पर उनकी चूर्णियां मिलती हैं। अतः टीकाकारों ने उनका नामोल्लेख करना आवश्यक न समझा हो ।
उत्तराध्ययन सूत्र की चूर्णि में ऐतिहासिक तथ्यों का संचयन है । इसमें पाठान्तर और अर्थान्तरों का भी यत्र-तत्र उल्लेख है । अर्थ करने की इसकी स्वतंत्र विधि है। प्रायः शब्दों की व्युत्पत्ति के आधार पर अर्थ किया गया है, जैसे- 'अश्नुते सर्वलोकेष्विति यशः, वृणोति वृण्वन्ति तमिति वर्णः, एति याति अस्मिन्निति आयुः, स्त्यायते इति स्तेन:' आदि-आदि। ये अर्थ कहीं-कहीं अत्यन्त स्पष्ट और सुबोध्य हैं, परन्तु कहीं-कहीं अत्यन्त दूर जा पड़ते हैं । कथाओं का ग्रहण भी हुआ है, परन्तु अत्यन्त संक्षिप्त | सबसे बड़ी विसंगति यह है कि प्रारंभिक बारह अध्ययनों की चूर्णि विस्तृत है और अगले अध्ययनों की संक्षिप्त । यह तथ्य इस प्रकाश किरण में अत्यधिक स्पष्ट हो जाता है कि इस चूर्णि के मुद्रित पृष्ठ २८४ हैं । इनमें प्रथम बारह अध्ययन के २१२ पृष्ठ हैं. और शेष २४ अध्ययनों के केवल ७२ पृष्ठ | ऐसा क्यों हुआ, इसका समाधान सरल नहीं है । इसका ग्रन्थाग्र ५८५० अनुष्टुप् श्लोक परिमाण है। यह
१. उत्तराध्ययन, सुखबोधा की प्रस्तावना, पृ. २ ।