Book Title: Agam Sampadan Ki Yatra
Author(s): Dulahrajmuni, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

View full book text
Previous | Next

Page 135
________________ १२२ आगम-सम्पादन की यात्रा हैं और नेमीचन्द्र सोलह श्लोक देते हैं। इसी प्रकार स्वप्न के संबंध में शान्त्याचार्य दो श्लोक और अंगविज्जा के लिए 'सिरफुरण्णे किररज्जं इति आदि'' ऐसा कहकर छोड़ देते हैं, परन्तु नेमीचन्द्र तेरह और सात श्लोक देते हैं। इसी प्रकार संक्षेप और विस्तार होता रहा है। टीका का ग्रन्थान १८,००० श्लोक परिमित है। ५५७ गाथाएं नियुक्ति की हैं, जिन पर भी टीका है। यदि टीका न हो तो कहीं-कहीं ये गाथाएं अत्यन्त अस्पष्ट रह जाती हैं। यथा नियुक्ति ९५,३७५ आदि। देवेन्द्रगणी इन्हें नेमीचन्द्र भी कहते हैं। इनकी उत्तराध्ययन की टीका ‘सुखबोधा' कहलाती है। उत्तराध्ययन की टीका के अन्त में प्रशस्ति श्लोकों से यह पता चलता है कि इस टीका की समाप्ति सं. ११२९ में हुई थी। अतः इनका कालमान ग्यारहवीं-बारहवीं शताब्दी कह सकते हैं। ये तपागच्छ के थे और इनके गुरु अमरदेव वृहद्गच्छ के आचार्य उद्योतन के शिष्य थे। वृहद्गच्छ चन्द्रकुल के आधिपत्य में था, जिसकी श्लाघा प्रद्युम्न, मानदेव आदि आचार्यों ने की है। देवेन्द्र को इस टीका लिखने की प्रेरणा अपने सतीर्थिक मुनि आचार्य मुनिचन्द्र से मिली थी और 'अणहिलपाटन' नगर में 'दोहडि सेठ की वसति में यह सम्पूर्ण हुई। इसका ग्रन्थमान बारह हजार अनुष्टुप् श्लोक परिमाण है। | यह टीका अपने आपमें स्वतंत्र रचना नहीं है। आचार्य शान्तिसूरी की बृहवृत्ति का यह लघु प्रतिबिम्ब-सा है। ग्रन्थकर्ता नेमीचन्द्र स्वयं अपनी टीका के प्रारंभ में यह लिखते हैं कि 'बह्वाद् वृद्धकृताद्, गम्भीराद् विवरणात् समुद्धृत्य । अध्ययनानामुत्तर-पूर्वाणामेकपाठगताम् ॥३॥ अर्थान्तराणि पाठान्तराणि सूत्रे च वृद्धटीकातः। बोद्धव्यानि यतोऽयं, प्रारम्भो गमनिकामात्रम्॥४॥ अर्थात् उत्तराध्ययन पर वृद्ध रचित बह्वर्थक गम्भीर विवरण के आधार पर यह टीका रची गई है। अर्थान्तर और पाठान्तर वृद्ध टीका से जानने चाहिए। यह तो केवल गमनिकामात्र है। इस टीका की अपनी एक अनुपम विशेषता यह है कि इसमें कथाओं १. उत्तराध्ययन, सुखबोधा, वृत्ति, पृ. १३० ।

Loading...

Page Navigation
1 ... 133 134 135 136 137 138 139 140 141 142 143 144 145 146 147 148 149 150 151 152 153 154 155 156 157 158 159 160 161 162 163 164 165 166 167 168 169 170 171 172 173 174 175 176 177 178 179 180 181 182 183 184 185 186 187 188