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आगम- सम्पादन की यात्रा
देहावसान वि. सं. १९९६ में हुआ। इसके अनुसार उनका कालमान ग्यारहवीं शताब्दी ठहरता है । इनको 'वादिवेताल' भी कहते थे । परन्तु यह उपाधि क्यों दी गई ? इसका समुचित समाधान नहीं मिलता। संभव है ये वाद-विवाद में प्रमुख रहे हों । अतः इन्हें 'वादिवेताल' कहा गया हो। इन टीकाओं से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि इनका ज्ञान सर्वांगस्पर्शी था ।
कई प्रतियों में प्रशस्ति के सात श्लोक और कइयों में तीन ही श्लोक मिलते हैं। उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि शान्त्याचार्य धारापद्रगच्छ (थ, रापद्रगच्छ ) के अनुयायी थे, जिसका उत्स था 'काथकरनान्वय' | यह चन्द्रकुल की शाखा थी और चन्द्रकुल 'वायरी शाखा' का एक विभाग था, जो कोटिक वंश से उत्पन्न हुआ था । कोटिक गण के संस्थापक आचार्य सुहस्ती के दोनों शिष्य – सुस्थित और सुप्रतिबन्ध थे । शान्तिसूरी के गुरु या अध्यापक सर्वदेव और अभयदेव थे । ये अभयदेव नवांगी टीकाकार अभयदेव सूरी से भिन्न हैं, क्योंकि इनकी मृत्यु सं. ११३५ अथवा ११३९ में हुई थी और ये शान्तिसूरी से छोटे थे ।
आगे चलकर प्रशस्ति में शान्तिसूरी हमें यह बताते हैं कि उनके समय में उत्तराध्ययन पर अनेक टीकाएं - वृत्तियां थीं तो भी गुणसेन की प्रेरणा से उन्होंने यह बृहत्तर कार्य प्रारम्भ किया और भिल्लभाल कुटुम्ब के भूषण श्री शान्त्यामात्य द्वारा संस्थापित 'अणहिलपाटन' चैत्य में इसे लिखा । परन्तु टीका की पूर्ति कब और कहां हुई इसका उसमें कोई उल्लेख नहीं है। बस इतना संक्षिप्त विवरण ही प्रशस्ति श्लोकों से उपलब्ध है ।
इनकी टीका 'शिष्यहिता टीका' के नाम से प्रसिद्ध है और इसकी यह विशेषता है कि इसमें मूल सूत्र और नियुक्ति दोनों की व्याख्याएं उपलब्ध हैं। अनेक प्रतियों में शिष्यहिता का उल्लेख नहीं हुआ है । यह कहा जा सकता है कि उत्तराध्ययन पर लिखी गई प्राचीन टीकाओं में यह शीर्ष स्थानीय है । पाठान्तरों का इसमें समुचित संग्रह किया गया है जिससे कि उस समय की विभिन्न वाचनाओं की ओर संकेत मिलता है। सबसे बड़ी बात इसमें यह है कि इसमें पाठान्तरों के साथ-साथ अर्थान्तरों का भी उल्लेख है जिससे कि अर्थ के उत्कर्षापकर्ष का भली-भांति पता लग जाता है । पाठान्तरों का उल्लेख I 'पठन्ति च पाठारन्तश्च, पाठान्तरे तु' – ऐसा कहकर करते हैं। कहीं-कहीं 'नागार्जुनीयास्तु पठन्ति' लिखकर पाठान्तर की ओर संकेत किया है और यह