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उत्तराध्ययन के तीन टीकाकार
११९ का पारायण भी हो चुका था। विषयों की स्पष्टता प्रकाशमान थी। अतः उस सूत्र पर कार्य करने में सुविधा रहती। परन्तु हमारा चुनाव उत्तराध्ययन सूत्र ही रहा। यह भी निष्कारण नहीं था। क्योंकि मूल सूत्र पाठ के निर्धारण के बिना आचारांग या किसी भी सूत्र पर कार्य करना इतना अर्थ नहीं रखता। उत्तराध्ययन सूत्र का पाठ-संशोधन हो चुका था, अतः उस पर ही अन्वेषण कार्य प्रारम्भ हुआ।
आगम-कार्य अवस्थिति और एकान्तता सापेक्ष है। यह अपेक्षा इस महानगर कलकत्ता में हमारे लिए संभव हुई। पढ़ने वाले को आश्चर्य अवश्य होगा परन्तु यह सही स्थिति है। जब तक आचार्यप्रवर कलकत्ता के उपनगरों में अणुव्रत का सन्देश लिए घूम रहे थे, तब तक मुनिश्री नथमलजी तथा उनके निर्देशन में कार्य करने वाले आठ-दस साधु महासभा भवन में ही रहे। कई साधु बीमार थे। उन्हें भी वहीं रखा गया। एक ओर संयमी मुनियों की सेवा, दूसरी
ओर जिन-शासन की सेवा-श्रुतसेवा थी। आनन्द का पारावार उमड़ रहा था। रुग्ण-परिचर्या और श्रुताराधना दोनों कार्य साथ-साथ चलते। जब आचार्यश्री महासभा भवन में चतुर्मासार्थ पधारे तब मुनिश्री नथमलजी आदि छह सन्तों को हेस्टिंग्स में (महासभा के तीन मील दूर) प्रभुदयालजी डाबड़ीवाल के मकान में ठहरने का आदेश दिया। स्थान की नीरवता, स्वच्छता और एकान्तता से कार्य-गति में वेग आया।
उत्तराध्ययन के कार्य के लिए हमारे सामने मुख्यतः तीन प्रतियां थीं जिनदास की चूर्णि, शान्त्याचार्य और नेमीचन्द्र की टीकाएं। इसके साथसाथ जेकोबी, सरपेन्टियर तथा अन्यान्य भारतीय विद्वानों के उत्तराध्ययन पर किए गए कार्य भी थे। प्रस्तुत निबन्ध में इन तीनों टीकाकारों का संक्षिप्त परिचय ही अभिप्रेत है। शान्त्याचार्य
इनके जीवन का विस्तृत लेखा-जोखा प्राप्त नहीं होता। उत्तराध्ययन की टीका के अन्त में प्रशस्ति-श्लोकों में जीवन के कुछेक पहलुओं पर प्रकाश पड़ता है। उन श्लोकों में इनके काल-मान का कोई नामोल्लेख नहीं है, परन्तु धर्मसागरगणी के गुर्वावली सूत्र में यह उल्लेख आया है कि 'शान्तिसूरी' का १. मुनि मीठालालजी, सुमेरमलजी 'सुदर्शन', सुमेरमलजी 'सुमन', श्रीचन्द्रजी, दुलहराजजी।