Book Title: Agam Sampadan Ki Yatra
Author(s): Dulahrajmuni, Rajendramuni
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 129
________________ आगम- सम्पादन की यात्रा ११६ हैं- 'भयवं ! किं तत्तं । " भगवान् कहते हैं- 'उप्पनेइ वा, विगमेइ वा, धुवेइ वा' इसे 'प्रश्नत्रितय', ‘मातृ पडिवा', 'निषधात्रय' अथवा 'त्रिपदी' कहा जाता है। इनके फलस्वरूप जिन ग्रन्थों की रचना होती है, वह अंग-प्रविष्ट कहलाता है और इतर रचनाएं अंग-बाह्य। द्वादशांगी अवश्य ही गणधरकृत है, क्योंकि यह त्रिपदी से उद्भूत होती है । परन्तु गणधरकृत समस्त रचनाएं अंग नहीं कहलातीं । अतः त्रिपदी के बिना मुक्त व्याकरण से जो रचनाएं होती है, चाहे फिर वे गणधरकृत हों या अन्य स्थविरकृत, उन सबका समावेश 'अंग - बाह्य' से होता है । आगम-रचना आगम-रचना के विषय में मतभेद है। कई यह मानते हैं कि गणधर सर्वप्रथम चौदह पूर्वों की रचना करते हैं और तदनन्तर आचार आदि अंगों की रचना होती है । २ १. दूसरा मत यह है कि गणधर सर्वप्रथम आचार आदि की रचना करते हैं और अन्त में चौदह पूर्वों की। पहला मत उचित प्रतीत होता है । उसके औचित्य का निम्न आधार है । पूर्वों में सारा श्रुत समा जाता है । किन्तु साधारण लोग पूर्वों को समझ नहीं सकते। उनका विषय अत्यन्त दुरूह और क्लिष्ट होता है । स्त्रियों को पूर्वों का अध्ययन करने का अधिकार नहीं है । क्योंकि उनमें तुच्छत्व, अभिमान, चंचलता, धृति - दौर्बल्य आदि दूषणों की अधिकता यद् गणधरैः साक्षाद् लब्धं तदङ्गप्रविष्टं तथा द्वादशाङ्गमेतत् पुनः स्थविरैर्भद्रबाहुस्वामिप्रभृतिभिराचार्यैरुपनिबद्धं तदनङ्गप्रविष्टं तच्चावश्यकनिर्युक्त्यादि अथवा वारत्रयंगणधराष्टेन सत्ता भगवता तीर्थंकरेण यत्प्रत्युच्यते 'उत्पन्ने इवा विगमेइ वा धुवइ वा' इति यत्त्रयं तदनुसृत्य यन्निष्पन्नं तदङ्गप्रविष्टं, यत्पुनर्गणधरप्रश्नव्यतिरेकेण शेषकृतप्रश्नपूर्वकं वा भगवतो युत्कलं व्याकरणं तदधिकृत्य यन्निष्पन्नं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्त्यादि, यच्च वा गणधरवचांस्येवोपजित्य दृब्धमावश्यकनिर्युक्त्यादि पूर्वस्थविरैस्तदनङ्गप्रविष्टं.... सर्वपक्षेषु द्वादशाङ्गानामङ्गप्रविष्टं शेषमनङ्गप्रविष्टं उक्तं च - 'गणहरधेरवायं वा आएसा मुक्कवा-गरणतो वा । धुवचलविसेसतो वा अंगा नाणंतं....विशेषावश्यक गाथा - ५४७ । मलयगिरिकृत आवश्यक सूत्र - वृत्तिपत्र - ४८ । २. ....आचारो....अङ्गलक्षणवस्तुत्वेन प्रथममङ्गस्थापनामधिकृतरचनाऽपेक्षया तु द्वादशमङ्गम्....समवायांग अभयदेवसूरिकृत वृत्तिपत्र - १०८ ।

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