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आगम- सम्पादन की यात्रा
जैन दर्शन ज्ञान की अनन्त उपलब्धि में विश्वास करता है । यह आत्मशुद्धि सापेक्ष है। जब तक घाति कर्म-चतुष्टय का सर्वथा विनाश नहीं होता, आत्मा में अनन्त-ज्ञान की स्फुरणा नहीं होती। इसके बिना सर्वज्ञता नहीं आती। सर्वज्ञता ज्ञान का चरम विकास है। ज्ञान का तरतम भाव हमें यह मानने के लिए प्रेरित करता है कि ज्ञान की चरम अवस्था भी होनी चाहिए, जिसे पा लेने के बाद और कुछ शेष नहीं रह जाता। यह वीतराग - अवस्था की चरम परिणति है । तदनन्तर साधक निर्द्वन्द्व हो, संकल्प - विकल्पों से सर्वथा छुटकारा पा अनुभूत -समाधि को प्राप्त कर लेता है । अध्यात्म का आदिबिन्दु सम्प्रवृत्ति है और उसकी परिणति है अक्रिया -यही निर्वाण है, मोक्ष है, शान्ति है ।
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जैन - दर्शन आत्मा का दर्शन है । आत्मा को केन्द्र-बिन्दु मानकर उसकी परिक्रमा किये वह चलता है और उसकी उपलब्धि में अपनी साधना की परिसमाप्ति मानता है ।
जैन- दर्शन की भित्ति आत्मवाद है । जब से आत्म- अस्तित्व का ज्ञान है, तब से जैन दर्शन है और जब से जैन दर्शन है, तब से आत्म- अस्तित्व का ज्ञान है। यह अनादि-अनन्त है । अनन्त काल - चक्र हो चुके हैं और भविष्य में अनन्त काल-चक्र होंगे। उन सबमें जैन प्रवचन का प्रज्ञापन होता रहेगा । काल की विचित्र परिणति के कारण इसकी उदित या अस्तमित दशा अवश्य होगी, परन्तु यह सम्पूर्णतः नष्ट नहीं होगी ।
जैन दर्शन प्राचीन काल में 'निर्ग्रन्थ- प्रवचन' कहलाता था । आगमों में इसका उल्लेख अनेक बार हुआ है। 'जैन' शब्द का प्रचलन कब से हुआ, इसका निश्चित इतिहास नहीं मिलता। मेरे देखने में विशेषावश्यकभाष्य गाथा (३८३) में केवली के लिए 'जैन', (प्रा. जइण) शब्द प्रयुक्त हुआ है। संभव है यही सबसे प्राचीन उल्लेख हो ।
जैन धर्म और दर्शन के आधार पर ग्रन्थ 'गणिपिटक' आगम 'या' सूत्र कहलाते हैं। श्रुत के अनेक पर्याय हैं, जैसे- श्रुत, सूत्र, ग्रन्थ, सिद्धान्त, प्रवचन, आज्ञा, वचन, उपदेश, प्रज्ञापन, आगम...... 12
१.
२.
जइणसमुग्धाय गइए, पत्र १४८ ।
'सुयसुत्त गन्थ सिद्ध तप वयणे आणवयण उवएसे । पण्णवण आगमे या एगट्ठा पज्जवा सुत्ते ।।
- अनुयोगद्वार ४, विशेषावश्यकभाष्य, गाथा ८९७ ।