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आगम-अध्ययन की दिशा
___ठाणं सूत्र (१०।१४२) में दस प्रकार के कल्पवृक्ष आए हैं। कल्पवृक्षों की रूढ़ मान्यता यही है कि वे मन-इच्छित वस्तुओं की पूर्ति करते हैं और यह भी कहा जा सकता है कि वे मनचाहे आभूषण, भोजन, वस्त्र या अन्यान्य सुख-सुविधाएं देते हैं। आगे चलकर यह भी कह दिया जाता है कि यौगलिकपरम्परा के साथ-साथ कल्पवृक्ष भी लुप्त हो गए।
सर्वप्रथम इस रूढ़ मान्यता का कोई पुष्ट आधार नहीं है। यौगलिक-युग में मनुष्य स्वभावतः शान्त, अल्पेच्छु और अनाकांक्षी होता था। प्रकृति से शान्त, सरल और सहज होता था। न समाज था, न राष्ट्र था, न राजा था, न प्रजा थी, न शासन थे, न शासित थे, न अत्याचार था, न दण्ड-विधान था। उस युग के मनुष्यों की आवश्यकताएं अल्प थीं। उनमें मोह, राग, द्वेष आदि की अल्पता थी। युग का वह आदिकाल था। माता-पिता की मृत्यु से पहले एक युगल पैदा होता। यौवन में वही युगल (भाई-बहन) विवाह-सूत्र में बंध जाता। वे अपनी-अपनी आवश्यकताएं कल्पवृक्षों से पूरी करते। वे सभी स्त्रीपुरुष गेहाकार भवन वृक्षों में रहते। वे वृक्ष स्वभाव से ही विशाल और आकार-प्रकार में भी विशाल भवन के समान होते थे। उनमें आरोह और अवरोह के स्वाभाविक साधन रहते। वातायन तरह-तरह के कमरे आदि की स्वाभाविक आकृतियां होतीं। यौगलिकों को उनमें रहने में बहुत ही सुख मिलता। इन्हें 'गेहाकार' कल्पवृक्ष कहा जाता था।
जब उन्हें प्यास लगती तब वे 'मदांगक' वृक्ष के पास जाते। यौगलिक इनके फल को तोड़ते और उनसे झरते हुए सुख पेय सुस्वादु मादक रस को पीकर प्यास बुझाते। इस कल्पवृक्ष के फल स्वभावतः ही स्फोट को प्राप्त होते और उनसे वह सुस्वादु रस झरता रहता।
भंग-ये कल्पवृक्ष भाजनाकार पत्तों वाले होते थे। इन वृक्षों के पत्र, पुष्प या फलों की यह स्वाभाविक परिणति थी कि वे थाली-कटोरा के आकार वाले होते थे। यौगलिक इनका उपयोग काम में आने वाले पदार्थों को रखने के लिए करते थे।
'त्रुटितांग' कल्पवृक्ष उनके आमोद-प्रमोद के साधन थे। इन वृक्षों के फल तत, वितत, घन, सुषिर आदि विभिन्न आकार वाले होते थे और यौगलिक उनका प्रयोग कर बाजों का आनन्द लेते थे।