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आगम- अध्ययन की दिशा
४. कल्पसूत्रचूर्ण में सूती वस्त्र को भीतर और ऊनी वस्त्र को ऊपर ओढ़ने की व्यवस्था करने वाला धर्म ।
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इस प्रकार यह 'सान्तरुत्तर' शब्द भी एक विशेष परम्परा का द्योतक है और इसीलिए भगवान् पार्श्व का धर्म इस शब्द से व्यवहृत हुआ है ।
मैंने कुछेक शब्दों की ओर संकेत किया है, जो कि परम्पराओं के संवाहक हैं और जिनके पीछे परम्परा की एक लम्बी कहानी है । इन्हें हम केवल पारिभाषिक शब्दमात्र ही नहीं कह सकते। इन शब्दों के पीछे जो रहस्य छिपा है, वह इनकी गौरव -: - गाथा गाने में पर्याप्त है ।
२७. आगम-अध्ययन की दिशा
जो कुछ दीखता है वही सत्य नहीं है, सत्य उससे परे भी है। जो कुछ मिलता है वही सत्य नहीं है, सत्य उससे परे भी है। जो कुछ कहा जाता है वही सत्य नहीं है, सत्य उससे परे भी है ।
यह स्वीकरण ही पूर्ण सत्य है, अन्य सारे सत्यांश हैं। एकान्तवाद असत्य ही नहीं होता, वह भी एक तथ्य का स्वीकरण है परन्तु वह इसलिए अग्राह्य है कि वह अपनी मान्यता को ही सत्य मानता है, दूसरे तथ्यों को नहीं, यही मिथ्याप्रवाद है। इस माध्यम से सत्य तक नहीं पहुंचा जा सकता ।
प्रत्येक व्यक्ति में अपने प्रति, अपने संस्कारों के प्रति, अपने विचारों के प्रति मोह होता है, उन्हीं में उसे सत्य दीखता है, वास्तव में वह पूर्ण सत्य नहीं, एक आपेक्षिक सत्य मात्र होता है । एक समय था जैन संघ अखण्ड था । कालव्यवधान से उसमें विघटन हुआ। आज उसमें अनेक सम्प्रदाय हैं। सभी सम्प्रदाय भगवान् महावीर को अपना इष्टदेव मानते हैं और उन्हीं के अनुशासन में साधना करने का दावा करते हैं। सभी ने महावीर को पकड़ा है, परन्तु किसी भी उनको समग्रता से पकड़ा हो, ऐसा नहीं है। एक रूप महावीर अनेक रूप हो गए। मूल को भूलकर शाखाओं को ही मूल मान लिया गया । विविधता का पादन्यास हुआ। जिसने जैसा चाहा उसने वैसी ही व्याख्या प्रस्तुत की । व्याख्या-भेद से विचार-भेद प्रवाहित हुआ । विचारों से संस्कार बदले और संस्कारों से सम्प्रदाय बने ।