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परम्पराओं के वाहक कुछ शब्द और उनकी मीमांसा २. विहमाइए
आचारांग का यह प्रयोग विशेष परम्परा का संवाहक है। जब मुनि शीतस्पर्श सहने में अपने आपको असमर्थ माने, तब वह उस विशेष स्थिति में
वैहायस–मरण, फांसी आदि के द्वारा प्राण-त्याग दे। यह उल्लेख पाठक को 'आत्महत्या' को मानने के लिए बाध्य करता है।
जैन आचारवाद 'आत्महत्या' को जघन्यतम पाप मानता है किन्तु संयमरक्षा के लिए शरीर-त्याग की अनुमति भी देता है। यह निम्नोक्त तथ्य से विदित हो जाता है।
एक बार एक व्यक्ति अपनी नवोढ़ा पत्नी को छोड़कर प्रव्रजित हुआ। कुछ वर्ष बीते। ग्रामानुग्राम विहरण करते-करते वह भिक्षु उसी ग्राम में आ पहुंचा। घरवालों ने उसे भिक्षा के लिए आमंत्रित किया। वह भिक्षा लेने गया। घरवालों के मन में मोह का ज्वार बढ़ा। ममत्व की ऊर्मियों से वे सब पराभूत हो गए। नवोढ़ा पत्नी का मन आसक्ति से भर गया। पूर्वाचरित भोगों की स्मृति ने उसे विह्वल बना डाला। भिक्षा देने के बहाने वह मुनि को एक कमरे में ले गई और कपाट बंद कर दिए। पत्नी ने भोग की प्रार्थना की। मुनि ने अपने श्रामण्य की अखण्डता का प्रतिपादन किया। स्त्री नहीं मानी और मुनि को विवश करने लगी। वहां से भाग निकलने के सारे द्वार बंद थे। मुनि असहाय था। उसने कहा यदि तू अपने विचार नहीं बदलेगी तो मैं प्राण दे दूंगा, ऊपर से नीचे गिरकर मर जाऊंगा। स्त्री अपने कथन पर दृढ़ थी। तब मुनि अपने संयम की रक्षा के लिए प्रासाद तल से गिरकर मर गया। भगवान् ने कहा-ऐसी स्थिति में इस प्रकार प्राणों का विसर्जन कर देना अनुज्ञात है, सम्मत है। किन्तु हर एक स्थिति में ऐसा करना अनुज्ञात नहीं है।
इस तथ्य से यह स्पष्ट प्रतीत होता है कि एकमात्र संयम की सुरक्षा के लिए जब अन्यान्य उपायों का अवकाश न हो, तब वैहायस-मरण, फांसी
आदि साधनों द्वारा प्राण-त्याग करना काल-पर्याय है, अन्यथा नहीं। यह विवशता की स्थिति है। ३. संतरुत्तरे
यह दो शब्दों के योग से बना है-सान्तर और उत्तर। यह दो वस्त्रों का १. आचारांग, ८।४।५८ ।
२. आचारांग, ८।४।५१।