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परम्पराओं के वाहक कुछ शब्द और उनकी मीमांसा
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२६. परम्पराओं के वाहक कुछ शब्द और उनकी मीमांसा
हम मनुष्य हैं। हमारी अभिव्यक्ति का सक्षम माध्यम है भाषा। शब्दों की संहति भाषा है। शब्दों के अनन्त पर्याय हैं। अतः वे अनन्त अर्थों को अभिव्यक्त करने में समर्थ होते हैं। शब्दों का अपने आपमें कोई अर्थ नहीं है। जब उनमें अर्थ का आरोपण किया जाता है, तब वे अभिव्यक्ति के घटक बनते हैं। अर्थारोपण की इयत्ता अपनी-अपनी है, परन्तु जब वे अनेकशः एक ही अर्थ में प्रचलित हो जाते हैं तब वे रूढ़ बन जाते हैं। यह रूढ़ता सार्वकालिक नहीं होती, क्योंकि अर्थ का उत्कर्ष या अपकर्ष होता रहता है। ___ 'भाषा एक प्रकार का चिह्न है। चिह्न से तात्पर्य उन प्रतीकों से हैं, जिनके द्वारा मनुष्य अपना विचार दूसरों पर प्रकट करता है। ये प्रतीक भी कई प्रकार के होते है, जैसे नेत्रग्राह्य, श्रोत्रग्राह्य एवं स्पर्शग्राह्य । वस्तुतः भाषा की दृष्टि से श्रोत्रग्राह्य प्रतीक ही सर्वश्रेष्ठ है।'
हमारे पास शब्दों के अतिरिक्त अभिव्यक्ति का कोई साधन नहीं है। यह साधन पूर्ण नहीं, यह भी हम जानते हैं, परन्तु उसका सहारा हमें लेना पड़ता है। जितना हम कहना चाहते हैं, वह शब्दों से अभिव्यक्त नहीं होता। अतः कहीं-कहीं शब्द अनर्थ भी पैदा कर देते हैं।
___ यह बाधा होते हुए भी हमारा सारा पारस्परिक व्यवहार इसी पर आश्रित है। ___ कई शब्द ऐसे हैं, जिनसे केवल सामान्य अर्थबोध ही होता है और कई शब्द महत्त्वपूर्ण परम्पराओं के संवाहक होते हैं। प्रयोगकाल में वे परम्पराएं प्रचलित होती हैं, अतः तत्-तत् शब्दों से वे अभिव्यक्त की जाती हैं। किन्तु कालान्तर में अनेक कारणों से मूल अर्थ-बोध लुप्त हो जाता है और परम्परा को वहन करने वाले शब्द भी केवल सामान्य अर्थ के वाचक मात्र रह जाते हैं। इस शब्दगत समस्या का यह इतिहास अति प्राचीन है। इसका समाधान शक्य नहीं है। इसीलिए शब्दों से अनेक-अनेक विवाद उत्पन्न होते हैं और बढ़ते-बढ़ते नए-नए दर्शनों का भी उद्भव हो जाता है।
मेरे प्रस्तुत निबन्ध का विषय कुछ एक शब्दों की ओर इंगित करना मात्र है, जो विशेष परम्पराओं के बोधक रहे हैं और आज उनकी गरिमा को व्याख्या-ग्रन्थों की अर्थ-परम्परा से ही जाना जा सकता है।