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दशवैकालिक में भिक्षु के लक्षण
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४. औदेशिक आहार पृथ्वी - तृण-काष्ठ आदि के आश्रित जीवों के वध का कारण है-ऐसा जानकर जो औदेशिक आहार नहीं करता, जो न पकाता है। और न पकवाता है, वह भिक्षु है ।
५. जो ज्ञातपुत्र के वचनों में रत है, षट्जीवनिकायों को आत्म-तुल्य समझता है, पंच महाव्रतों का स्पर्श - पालन करता है, पंचाश्रवों का संवरण करता है, वह भिक्षु है ।
६. जो कषाय-चतुष्टय का सदा परित्याग करता है, बुद्ध-तीर्थंकरों के वचनों में ध्रुवयोगी - स्थिर निष्ठा वाला होता है, जो किसी प्रकार का परिग्रह नहीं रखता और गृहस्थों के साथ योग - परिचय - स्नेह का सदा वर्जन करता है, वह भिक्षु है ।
७. जो सम्यग्दृष्टि है, सदा अमूढ़ - गृहस्थों के कार्यों में अमूर्च्छित है, ज्ञान - तप और संयम में विश्वास करने वाला है, जो तपस्या के द्वारा पुराने पाप-कर्मों को धुन डालता है - नष्ट कर देता है, मन-वचन और काया को संवृत्त रखने वाला है, वह भिक्षु है ।
८. जो विविध प्रकार के अशन-पान खादिम - स्वादिम को पाकर अगले दिन के लिए संचय नहीं करता और न संचय करवाता है, वह भिक्षु है ।
९. जो विविध प्रकार के अशन-पान - खादिम - स्वादिम को पाकर अपने सहधर्मी साधुओं को बुलाकर खाता है और आहार (भोजन) कर स्वाध्याय में रत रहता है, वह भिक्षु है ।
१०. जो कलह उत्पन्न करने वाली कथा नहीं कहता, क्रोध नहीं करता, इन्द्रियों को सदा वश में रखता है, उपशान्त है, संयम में निश्चल मन वाला है, दुःख में आकुल-व्याकुल नहीं होता और जो दूसरों का तिरस्कार नहीं करता, वह भिक्षु है ।
११. जो इन्द्रियों के विषयों में आसक्त नहीं बनता, आक्रोश-प्रहार और तर्जना को सहन करता है, भयंकर शब्द व अट्टहासों से घबराता नहीं, सुखदुःख को समभाव से सहन करता है, वह भिक्षु है ।
१२. जो भिक्षु-प्रतिमा को धारण कर श्मशान में जाता है, परन्तु घोर या भयंकर शब्द सुनकर या रूप देखकर डरता नहीं, जो विविध गुणरूप तपस्या में सदा रक्त रहता है, जो अपने शरीर की भी अभिलाषा ( परवाह) नहीं रखता, वह भिक्षु है ।
१३. जो मुनि सदा त्यक्त - देह है, आक्रोश किये जाने- पीटे जाने या