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आगम-सम्पादन की यात्रा प्राचीन प्रतियों में 'ओ' 'उ' 'स' 'म' 'भी' बहुत समान रूप से लिखा जाता था। इसलिए उत्तरवर्ती प्रतियों में बहुत से स्थलों में 'ओ' के स्थान में 'उ' और 'स' के स्थान में 'म' भी मिलता है।
यह कटु सत्य है कि जैनाचार्यों ने अन्यान्य रचनाओं द्वारा भारतीय वाङ्मय को समृद्ध बनाने में पूर्ण योग दिया है। परन्तु आगम-साहित्य के प्रति उन्होंने उतने उत्साह से काम नहीं किया, जितना करना चाहिए था। यही कारण है कि आज भी आगम-साहित्य अस्त-व्यस्त पड़ा है। पाठों की अव्यवस्था को देखकर तो बहुत ही दुःख होता है। यह सामयिक आवश्यकता है कि इस ओर ध्यान दिया जाय और उचित प्रयत्नों द्वारा पाठों को व्यवस्थित किया जाए।
आचार्यश्री तुलसी इतने व्यस्त रहते हुए भी प्रतिदिन तीन-चार घंटे पाठ को व्यवस्थित करने और अन्यान्य तथ्यों के अन्वेषण में लगाते हैं और अपने बहुमूल्य निर्देशों द्वारा आगम कार्यकर्ताओं को दिशा-सूचन करते रहते हैं। उन्हीं की संरक्षणता में सारा कार्य चल रहा है। मुनिश्री नथमलजी भी अपना सारा श्रम आगम-कार्य के लिए ही लगाते हैं। रात्रि में आचार्यप्रवर के पास चिन्तन चलता है और उसी चिन्तन के अनुसार सारा कार्य समुचित रूप से चलता रहता है। आचार्यप्रवर तथा मुनि नथमलजी के अनवरत चिन्तन, मनन और निदिध्यासन से आगम-विषयक एक अभूतपूर्व कार्य होगा, इसमें कोई सन्देह नहीं। आचार्यश्री का कुशल नेतृत्व और मुनिश्री का सतत प्रवाही चिन्तन कुछ नए तथ्यों को प्रकाश में लाएगा, ऐसा विश्वास है।
२५. दशवकालिक में भिक्षु के लक्षण १. जो बुद्ध-तीर्थंकरों की आज्ञानुसार निष्क्रमण कर-दीक्षा ले संयम में सदा समाधि चित्त वाला होता है, स्त्रियों के वशीभूत नहीं होता, वमन किये हुए छोड़े हुए कामभोगों की इच्छा नहीं करता, वह भिक्षु है।
२. जो पृथ्वी को न खोदता है और न खुदवाता है, शीत-उदक–सचित्त पानी न पीता है और न पिलाता है, अग्नि, जो तीक्ष्णशस्त्र है, को न जलाता है और न जलवाता है, वह भिक्षु है।
३. जो न पंखे से हवा लेता है और न दूसरों के लिए पंखा झलता है, वनस्पति का छेदन न करता है और न करवाता है, बीजों को सदा वर्जता हुआ सचित्त आहार नहीं करता, वह भिक्षु है।