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दशवैकालिक का पांचवां अध्ययन : एक दृष्टि
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आलावओ एवं पढिज्जइ - 'वंदमाणो न जाएज्जा' । अर्थ-संगति की दृष्टि से पाठान्तर वाला पाठ उचित लगता है । हमने इसी पाठ को मान्य किया है।
'वंदमाणो न जाएज्जा', 'वंदमाणो' शब्द श्रमण का विशेषण और प्रथमा विभक्ति का एक वचन है । इसका अर्थ होता है 'वंदना करता हुआ याचना न करे' । आचारांग चूला (१/६२) में भी इसी अर्थ का द्योतक पाठ है-'णो गाहावइं वंदिय-वंदिय जाएज्जा नो वयणं फरुसं वएज्जा' - भिक्षु गृहस्थ की वन्दना-स्तुति करके याचना न करे और न मिलने पर कठोर वचन न बोले । वृत्तिकार शीलांकसूरि ने भी इसका यही अर्थ किया है - गृहपतिं 'वन्दित्वा' वाग्भिः स्तुत्वा प्रशस्य नो याचेत ।' (आ. चू. १ । ६२ वृ.)
निशीथ सूत्र में पूर्व संस्तव और पश्चात् संस्तव करने वाले को प्रायश्चित आता है - ऐसा लिखा है- 'जे भिक्खू पुरेसंथवं वा पच्छासंथवं वा करेति, करेंतं वा सातिज्जति ।" इसी को स्पष्ट करते हुए निशीथ के चूर्णिकार ने लिखा है - 'संथवो थुती अदत्ते दाणे पुव्वसंथवो, दिण्णे पच्छासंथवो । जो तं करेति सातिज्जति वा तस्स मासलहुं ।'' यह पूर्व-पश्चात् संस्तव उत्पादन का ग्यारहवां दोष है और प्रस्तुत श्लोक में उसी का निषेध किया गया है।
उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो जाता है कि शब्दों का अर्थ करते समय किस प्रकार अन्यान्य स्थलों की अपेक्षा रहती है। एक दूसरे स्थलों पर पूरा ध्यान दिए बिना ठीक अर्थ पकड़ा नहीं जाता। इसी प्रकार कई ऐसे शब्द हैं, जिनका अर्थ अन्य ग्रंथों की सहायता के बिना नहीं किया जा सकता ।
लिपिभेद से भी पाठों में अन्तर आया है । लिखावट की अस्पष्टता के कारण किस प्रकार काल के व्यवधान से मूल शब्दों में अन्तर आया है, यह मुनिश्री नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) ने भूमिका में स्पष्ट किया है। उदाहरणस्वरूप उसका एक अंश यहां दिया जाता है - कालक्रम से लिपिभेद भी आया है। पूर्ववर्ती लिपि को पढ़ना उत्तरवर्त्तियों के लिए कठिन हो जाता है । इससे भी बहुत-सी अशुद्धियां बनी हैं। जैसे प्राचीन प्रतियों में 'एडेति पाठ है, वह उत्तरवर्ती प्रतियों में 'पडेति' बन गया। इसी प्रकार प्राचीन प्रतियों में 'संथडिए', 'चीणंसुय'", "मंतं' ६, जोगं'" आदि पाठ हैं । वे उत्तरवर्त्ती प्रतियों में क्रमशः 'संघडिए' 'वीणंसुय' और 'महंतं' बन गए...... । इसके अतिरिक्त
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१. निशीथ, उद्देशक २, सू. ३७ । २. निशीथ चूर्णि २ । ३७ ।
३. निशीथ, उद्देशक ३, सू. ८० । ४. निशीथ, उद्देशक, १०, सू. २५, २६ ।
५.
६.
७.
निशीथ, उद्देशक, ७ सू. १०-१२ । निशीथ, उद्देशक, १३ सू. २६ । निशीथ, उद्देशक, १३ सू. २७ ।