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आगम-सम्पादन की यात्रा
घायल किये जाने पर भी पृथ्वी के समान क्षमाशील होता है, जो निदान–फल की कामना नहीं करता तथा कौतूहल-नाच, गान आदि में उत्सुकता नहीं रखता, वह भिक्षु है।
१४. जो अपने शरीर से परीषहों को जीतकर जातिपथ-जन्ममरण से अपनी आत्मा का उद्धार कर लेता है, जन्म-मरण को महाभयंकर जानकर संयम और तप में रत रहता है, वह भिक्षु है।
१५. जो हाथ-पैर-वाणी और इन्द्रियों से संयत है, अध्यात्म में रत है, आत्मा से सुसमाधिस्थ है और जो सूत्रार्थ को यथार्थ जानता है, वह भिक्षु है।
१६. जो उपकरणों में अमूर्च्छित है, अगृद्ध है, अज्ञातोंछ–प्रत्येक घर से थोड़ा-थोड़ा लेने वाला है, क्रय-विक्रय या संचय से विरक्त है और जो सर्व प्रकार के स्नेह-संबंधों से रहित है, वह भिक्षु है।
१७. जो अलोलुप है, रसों में गृद्ध नहीं बनता, आवश्यकतानुसार थोड़ाथोड़ा ग्रहण कर अपना जीवन चलाता है, असंयम जीवितव्य की वांछा नहीं करता, ऋद्धि-सत्कार और पूजा की कामना नहीं करता उनको त्याग देता है, जो आत्मस्थ है, माया रहित है, वह भिक्षु है।
१८. जो ‘वह कुशील है' ऐसा नहीं कहता, दूसरा क्रोध करे ऐसी वाणी नहीं बोलता, पुण्य-पाप व्यक्ति-व्यक्ति के हैं यह जानकर आत्मोत्कर्ष नहीं करता, वह भिक्षु है।
१९. जो जाति-रूप-लाभ और ज्ञान का मद नहीं करता, सब मदों को वर्ज कर जो धर्म-ध्यान में सदा तल्लीन रहता है, वह साधु है।
२०. जो मुनि आर्यपद तीर्थंकर के मार्ग का उपदेश करता है, स्वयं धर्म में स्थित हो दूसरों को भी धर्म में स्थापित करता है, जो प्रव्रज्या ग्रहण कर कुशीललिंग–पाखंड वेष का वर्जन करता है, हंसी-मजाक नहीं करता, माया नहीं करता, वह भिक्षु है।
२१. जो मुनि इस प्रकार सदा आत्मा में स्थित हो, इस देहवास-जीवन को मलीन व अशाश्वत जानकर इसका त्याग करता है वह जातिमरण-जन्ममरण के बंधन को तोड़कर अपुनरागम-मोक्ष को प्राप्त होता है।
१. दशवै. १०।१-२१।