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दशवैकालिक का पांचवां अध्ययन : एक दृष्टि
हैं । सामान्य सूत्र के एक अध्ययन में इतना मतभेद अवश्य ही काल व्यवधान से विच्छिन्न परम्पराओं की अजानकारी की ओर संकेत करता है । अगस्त्यसिंह मुनि इसमें बहुत प्रामाणिक रहे हैं, ऐसा लगता है। कारण कि उन्होंने स्थान - स्थान पर अन्य परम्पराओं का भी उल्लेख किया है ।
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अर्थ की दृष्टि से पांचवां अध्ययन विवादग्रस्त है । कहीं-कहीं शब्दों का अर्थ पकड़ने में भी बहुत कठिनाइयां आती हैं। किसी शब्द का चूर्णिकार एक अर्थ करते हैं और टीकाकार दूसरा अर्थ करते हैं और वास्तव में उसका अर्थ कुछ और ही होता है। ऐसी अवस्था में पाठक असमंजस में पड़ जाता है । एक ओर वह प्राचीन महर्षियों व विद्वानों की प्रामाणिकता को सहसा अमान्य नहीं कर सकता और दूसरी ओर उसकी मनीषा उस अर्थ को स्वीकार भी नहीं कर सकती। ऐसी अवस्था में चिन्तन अग्रसर होता है और किसी एक निष्कर्ष पर पहुंच जाता है।
कई दिनों से हम आचार्यप्रवर के पास दशवैकालिक सूत्र के पारिभाषिक शब्दों की सूची तैयार कर रहे थे । आचार्यप्रवर अपनी बहुश्रुतता से हमें निर्देश दे रहे थे।
एक दिन मुनिश्री नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) चरक, सुश्रुत आदि ग्रंथ लेकर आए। वन्दनकर आचार्यप्रवर से निवेदन किया कि मूल आगमकार को किसी शब्द का कोई अर्थ अभिलषित रहा है और काल के व्यवधान से, परम्पराओं की एकता के अभाव में सही अर्थ को पकड़ने में बड़ी कठिनाई रही है । चूर्णिकार सही अर्थ पकड़ने में समर्थ हुए भी हैं; परन्तु कहीं-कहीं उन्हें भी सन्देह होता रहा है। ऐसे सन्देह - स्थलों में उन्होंने कई अर्थों को विकल्प में रखकर न्याय ही किया है ताकि अगली पीढ़ी के लिए सोचने-समझने का द्वार खुला रह सके। ज्यों-ज्यों काल बीता, त्यों-त्यों अन्य ग्रंथों से सम्पर्क छूटसा गया और मौलिक अर्थ पकड़ना बहुत कठिन होने लगा । यह कठिनाई टीकाकारों के सामने भी रही है । उनके उत्तरवर्ती विद्वानों ने तो कहीं-कहीं शब्द के मूल को न समझने के कारण बड़ा अनर्थ किया है । यह भूल उत्तरवर्ती साहित्य में खप गई- इसका मूल कारण था एतद्विषयक साहित्य के अध्ययन के प्रति उदासीनता । चरक, सुश्रुत आदि ग्रंथों में भी जैन शब्दों को समझने की विशिष्ट सामग्री मिलती रही है, इसलिए उनका अध्ययन भी अपेक्षित हो जाता है।