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आगम सम्पादन की यात्रा
आचार्यश्री ने कहा- उत्तरवर्ती आचार्यों और विद्वानों में बहुश्रुतता नहीं रही। यही कारण था कि अर्थों में विपर्यास हुआ और शब्द की भावना बदल गई । बहुश्रुतता का संबंध केवल आगम-अध्ययन से ही नहीं है - अन्यान्य ग्रंथों का जब तक सांगोपांग अध्ययन नहीं हो जाता, तब तक बहुश्रुतता नहीं आती । यही कारण था कि कई एक विशिष्ट टीकाकार ज्योतिष, व्याकरण, काव्य, अलंकार, चिकित्सा-शास्त्र आदि का पूरा अध्ययन करते थे । परन्तु आजकल ऐसा कहां होता है ?
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प्रथम उद्देशक के सोलहवें श्लोक में 'रहस्सारक्खियाण य' ऐसा शब्द है । चूर्णिकार अगस्त्यसिंह मुनि इसको एक शब्द मानकर, इसका अर्थ 'रायंतेपुरवरा अमात्यादयो' करते हैं ।
अंतःपुर के अमात्य को 'रहस्स आरक्षिक' कहा जाता था । उस जमाने में अनेक प्रकार के अमात्य होते थे, यह अशोक के शिलालेखों से ज्ञात होता । धर्म अमात्य, सेना अमात्य, अन्तःपुर अमात्य आदि । इस श्लोक में 'अन्तःपुर अमात्य'–यह अर्थ अभीप्सित है और यह सही है । परन्तु दूसरे चूर्णिकार जिनदास महत्तर ने 'रहस्स' शब्द को सभी शब्दों के साथ जोड़ा है- 'रणो रहस्सद्वाणाणि गिहवईणं रहस्सद्वाणाणि, आरक्खियाणं रहस्सद्वाणाणि... रहस्सद्वाणाणि नाम गुज्झोवरगा, जत्थ वा राहस्सियं मंतेंति – इससे पूरे श्लोक का कुछ भिन्न अर्थ ही अभिव्यञ्जित होता है ।
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टीकाकार हरिभद्रसूरि ने 'आरक्षकाणां च' दण्डनायकादीनां 'रहः स्थानं' गुह्यापवरकमन्त्रगृहादि”–ऐसा माना है । जिनदास महत्तर और हरिभद्रसूरि इस विषय में एकमत प्रतीत होते हैं । परन्तु अर्थसंगति की दृष्टि से अगस्त्यसिंह मुनि का अर्थ ठीक जान पड़ता है ।
एक विभक्ति के विपर्यास से अर्थ में कितना अन्तर आ जाता है - यह मुनिश्री नथमलजी द्वारा लिखित एक टिप्पण से स्पष्ट हो जाता है । टिप्पण यों हैं - (५।२।२९) में 'वंदमाणं न जाएज्जा' ऐसा पाठ है । 'वंदमाणं' - द्वितीया विभक्ति का एक वचन और दाता का विशेषण है । इसका अर्थ होता है- 'वंदना करने वाला' । दोनों चूर्णिकार और टीकाकार ने इसी पाठ को मुख्य मानकर अर्थ किया है और पाठान्तर में 'वंदमाणो न जाएज्जा' ऐसा पाठ दिया है- ' अहवा एस २. हा. टी. प. १६६ ।
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१. जि. चू. पृ. १७४ ।