________________
आगम-सम्पादन की यात्रा हैं) प्रायः छन्द श्लोक हैं और यत्र तत्र अन्य छन्दों का भी प्रयोग हुआ है। कौन-कौन से अध्ययन में कौन-कौन से छन्द प्रयुक्त हुए हैं? यह एक स्वतंत्र निबन्ध का विषय है। इस निबंध में केवल दशवैकालिक सूत्र के पांचवें अध्ययन पर अन्यान्य दृष्टियों से कुछ विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
प्रचलित मान्यता के आधार पर पांचवें अध्ययन के १५० पद्य माने जाते हैं। किन्तु चूर्णिकार और टीकाकार इसमें एकमत नहीं हैं। टीकाकार आचार्य हरिभद्रसूरि १५० पद्य स्वीकार करते हैं। __चूर्णिकार जिनदास महत्तर कुछ विशेष पद्यों को मानकर चलते हैं। प्रथम उद्देशक का तेतीसवां श्लोक ‘एवं उदओल्ले'-वे स्वीकार नहीं करते। इस श्लोक के शब्दों के अलग-अलग कई श्लोक बनते हैं-ऐसा उनकी चूर्णि से पता लगता है। यद्यपि इसका स्पष्ट उल्लेख नहीं है; परन्तु प्रयुक्त शब्द उसी
ओर संकेत करते हैं। स्पष्टता के लिए चूर्णि का कुछ अंश प्रस्तुत किया जाता है-'उदउल्लं' नाम जलर्तितं उदउल्लं, सेसं कंठं, एवं ससिणिद्धं नाम जं न गलइ, सेसं कंठं, ससरक्खेण ससरक्खं नाम पंसुरजगुंडियं, सेसं कंठं मट्टिया कडउमट्टिया चिक्खलो, सेसं कंठं, एतेण पगारेण सव्वत्थ भाणियव्वं ।'
उपरोक्त अंश में 'सेसं कंठं' शब्द ध्यान देने योग्य है। यदि पूर्वश्लोक 'पुरेकम्मेण हत्थेण' की तरह 'उदउल्लेण हत्थेण.....' पूरा श्लोक नहीं होता तो 'सेसं कंठं' शब्द देने की कोई आवश्यकता नहीं होती। 'सेसं कंठं' शब्द श्लोक के अन्य पूरक शब्दों की ओर संकेत करता है। इसलिए श्लोक ३३-३४ के प्रत्येक शब्द का एक-एक श्लोक बनता है। इस प्रकार सत्तरह श्लोक बन जाते हैं।
अगस्त्यसिंह मुनि ने भी श्लोक ३३-३४ के स्थान पर स्वतंत्ररूप से सत्तरह श्लोक माने हैं। सारे श्लोकों का पृथक्-पृथक् निर्देश किया है-यह तथ्य यों भी सही प्रतीत होता है कि पहले ये सारे श्लोक मान्य रहे हों और कालान्तर में उनका संक्षेपीकरण हुआ हो। यह कहना कठिन है कि संक्षेपीकरण कब हुआ? परन्तु मान्य श्लोकों के आधार पर ‘एवं' शब्द भी उनकी पृथक् सत्ता की ओर संकेत करता है। अन्यथा ‘एवं उदओल्ले' कहने की कोई आवश्यकता नहीं होती। श्लोक ‘एवं' से प्रारंभ होता है और 'चेव बोधव्वे' में परिसमाप्त हो जाता है। इस प्रकार यह संग्राहक श्लोक प्रतीत होता है जो कुछ १. जि. चूर्णि, पृ. १७९ ।