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आगम सम्पादन की यात्रा
स्कन्दपुराणकारकों का भी इसका यही अर्थ मान्य है - 'दिनार्द्धसमयेऽतीते, भुज्यते नियमेन यत् । एकभक्तमिति प्रोक्तं, रात्रौ तन्न कदाचन ।'
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उत्तराध्ययन (२६।१२ ) के अनुसार सामान्यतः एक बार तीसरे पहर में भोजन करने का क्रम रहा है । पर यह विशेष प्रतिज्ञा रखने वाले श्रमणों के लिये था या सबके लिए, इसका कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिलता, किन्तु आगमों के कुछ अन्य स्थलों के अध्ययन से पता चलता है कि यह क्रम सबके लिए या सब स्थितियों में नहीं रहा है। जो निर्ग्रन्थ सूर्योदय से पहले आहार लेकर सूर्योदय के बाद उसे खाता है वह 'क्षेत्रातिक्रान्त' पान - भोजन' है। निशीथ (१०।३१-३९) के 'उग्गयवित्तीए और अणत्थमियमणसंकप्पे ' – इन दो शब्दों का फलित यह है कि भिक्षु का भोजनकाल सूर्योदय से लेकर सूर्यास्त के बीच का कोई भी काल हो सकता है । यही आशय दशवैकालिक के निम्न श्लोक में मिलता है
अत्थंगयम्मि आइच्चे, पुरत्था य अणुग्गए ।
आहारमइयं सव्वं, मणसा विन पत्थए । । (८/२८)
तात्पर्य यह है कि यदि केवल तीसरे पहर में ही भोजन करने का सार्वदिक विधान होता तो सूर्योदय या सूर्यास्त हुआ है या नहीं, ऐसी विचिकित्सा का प्रसंग ही नहीं आता और न ' क्षेत्रातिक्रान्त पान - भोजन' ही होता, पर ऐसी विचिकित्सा की स्थिति का भगवती, निशीथ और बृहत्कल्प (५।६) में उल्लेख हुआ है। इससे जान पड़ता है कि भिक्षुओं के भोजन का समय प्रातःकाल और सायंकाल ही रहा हैं। ओघ - निर्युक्ति में विशेष स्थिति में प्रातः, मध्याह्न, सायं-इन तीनों समयों में भोजन करने की अनुज्ञा मिलती है । इस प्रकार 'एक-भक्त- भोजन' के सामान्यतः एक बार का भोजन और विशेष परिस्थिति में दिवस-भोजन - ये दोनों अर्थ मान्य रहे हैं
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इस प्रकार कुछ तथ्यों का निर्देश मैंने किया है । इन तथ्यों से दशवैकालिक सूत्र की शालीनता स्वतः सिद्ध हो जाती है । उपरोक्त विवरण से यह स्पष्ट हो गया है कि सूत्रपाठों में व अर्थ में कितनी गड़बड़ हुई है और १. गोयमा ! जे णं निग्गंथो वा निग्गंधी वा फासुएसणिज्जं असणं .... अणुग्गए सूरिए पडिग्गाहित्ता उग्गए सूरिए आहारं आहारेति, एस णं गहणेसणा ? खेत्तातिकंते पाणभोयणे । ( भगवती ७ । १ सू. २१) ।
२. ओघनिर्युक्ति गाथा २५०, भाष्यगा. १४८-१४९ ।