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दशवैकालिक के अर्थ और ऐतिहासिक तथ्य किये गये हैं। आचार्य वट्टकेर न प्रक्षालन और घर्षण आदि सारी क्रियाओं का 'दंतमण' शब्द से संग्रह किया हैं-अंगुलिणहावलेहिणीकालीहि, पासाणछल्लियादीहिं । ‘दंतमलासोहणयं संजमगुत्ति अदंतमण।' (मूलाचारमूलगणाधिकारः ३३)। ___अंगुली, नख, अवलेखिनी (दंतौन), काली (तृणविशेष), पैनी, कंकणी, वृक्ष की छाल (वल्कल) आदि से दांतों के मैल को शुद्ध नहीं करना, यह इन्द्रिय- संयम की रक्षा करने वाला 'अदंतमन' मूल गुणव्रत हैं।
प्रो. अभ्यंकर ने 'दंतमण्ण' का अर्थ–'दांतों को रंगना' (Painting The Teeth) किया है। यह मूलस्पर्शी अवश्य है पर पर्याप्त नहीं है। एक-भक्त-भोजन
अगस्त्यसिंह मुनि ने 'एक-भक्त-भोजन' का अर्थ 'एक बार खाना अथवा राग-द्वेष रहित भाव से खाना किया है-“एगवारं भोयणं एगस्स वा रागद्दोसरहियस्य भोयणं ।'' इस वाक्य-रचना में यह प्रश्न शेष रहता है कि एक बार कब खाया जाए? इस प्रश्न का समाधान दिवस शब्द का प्रयोग कर जिनदास महत्तर कर देते हैं-'एगस्स रागदोसरहियस्य भोअणं अहवा इक्कवारं दिवसओ भोयणंति।" टीकाकार द्रव्य-भाव की योजना के साथ चूर्णिकार के मत का ही समर्थन करते हैं-'द्रव्यत एकम्-एकसंख्यानुगतं, भावत एकं कर्मबन्धाभावादद्वितीयं तद्दिवस एव रागादिरहितस्य अन्यथा भावत एकत्वाभावादिति'। काल के दो विभाग हैं-दिन और रात । रात्रि-भोजन श्रमण के लिए सर्वथा निषिद्ध है। इसलिए इसे सतत तप कहा गया है। शेष रहा दिवस-भोजन । प्रश्न यह है कि दिवस-भोजन को एक-भक्त-भोजन माना जाए या दिन में एक बार खाने को? चूर्णिकार और टीकाकार के अभिमत से दिन में एक बार खाना एक-भक्त-भोजन है। आचार्य वट्टकेर ने भी इसका अर्थ यही किया है
'उदयत्थमणे काले णालीतियवज्जियम्हि मज्झम्हि । एकम्हि दुअ तिए वा मुहुत्तकालेयभत्तं तु।'
(मूलाचार-मूलगुणाधिकार ३५) सूर्य के उदय और अस्तकाल की तीन घड़ी छोड़कर या मध्यकाल में एक मुहूर्त, दो मुहर्त या तीन मुहूर्त काल में एक बार भोजन करना, यह एकभक्त-मूल मूल-गुण है। १. अ. चू. पृ. १४८।
३. हा. टी. प. १९९ । २. जि. चू. पृ. २२२।