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दशवैकालिक के अर्थ और ऐतिहासिक तथ्य
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है और उस द्रव्य को लेने वाला या उसका आसेवन करने वाला 'वनीप' या 'वनीपक' कहलाता है। अतिथि-दान की प्रशंसा कर याचना करने वाला 'अतिथि वनीपक', अन्धे, लूले, लंगड़े या इसी प्रकार के अन्य लोगों को दान देना ही श्रेयस्कर है - ऐसा कहकर याचना करने वाले, 'किविण वनीपक', ब्राह्मणों को दिया हुआ दान ही फलप्रद होता है - ऐसा कहकर याचना करने वाले 'माहण वनीपक', कुत्ते आदि के माध्यम से याचना करने वाले 'श्व - वनीपक' और इसी प्रकार 'श्रमण वनीपक' कहलाते हैं ।
उपरोक्त वर्णन से यह सहजतया ज्ञात हो जाता है कि उस समय में याचकों के कितने प्रकार थे। देश की स्थिति और लोगों की भावनाएं कैसी थीं आदि-आदि ।
पांचवें अध्ययन की (दशवै. २ । १४) गाथा में कहा गया है कि यदि गृहस्थ गोचराग्र प्रविष्ट साधु को 'उत्पल' 'पद्म' आदि को छेदकर देना चाहे तो साधु उसे ग्रहण नहीं करे । इस गाथा से यह स्पष्ट संकेत मिलता है कि उस समय में सामान्य रसोईघरों में भी कमल आदि का प्रयोग होता था । प्रयोग की विधियां कौन-कौन-सी थीं - यह अन्वेषण का विषय है। इससे तात्कालिक लोगों की रुचियों का भी सहज अध्ययन हो जाता है। इसी प्रकार आगे की गाथाओं में भी अनेक पदार्थों के नाम गिनाये गये हैं । यह उनसे पता चलता है कि उस समय में कौन-कौन सी चीजें खाद्यरूप में विशेष काम आती थीं और 'सूइयं वा असूइयं ' ( दशवे. ५1१1९८ ) । इन शब्दों से भोजन को कैसे संस्कारित किया जाता था, इस पर काफी प्रकाश पड़ता है । 'तित्तगं' - ( दशवै. ५।१।९७) इस गाथा से लोगों की विभिन्न रुचियों का पता चलता है। कई लोग तिक्तभोजन के अभ्यासी थे और कई कटुक, आम्ल आदि भोजन को रुचिकर मानते थे। कई घरों में ये सारे भोजन, व्यक्ति की भिन्न-भिन्न रुचियों को संतुष्ट करने के लिए होते थे । इससे उनकी सम्पन्नता का पता चलता है ।
इस प्रकार गहरे चिंतन और मनन से और भी तथ्य सामने लाये जा सकते हैं। आवश्यकता यह है कि प्रत्येक अन्वेषक इस सूत्र को छोटा या सरल न समझकर गम्भीरता व मननशीलता से पढ़े ताकि कुछ नवनीत सामने आ सके ।
मैंने प्रारंभ में लिखा था कि दशवैकालिक सूत्र में कई स्थल बहुत ही संक्षिप्त हैं । उनका अर्थ अति दुरूह हो गया है । इसलिए शब्दों पर टिप्पणियां