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आगम-सम्पादन की यात्रा चूर्णिकार श्रीजिनदास महत्तर ने लिखा है-'सोरट्ठिया तुवरिया, जीए सुवण्णकारा उप्पं करेंति सुवण्णस्स पिंडं ।' सौराष्ट्रिका-तुवरिका जिससे स्वर्णकार सोने को आभा प्रदान करते हैं। इसी प्रकार निशीथ-भाष्य में भी सौराष्ट्रिका को तुवरिका कहा है। सोरट्ठिया-'तुवरि मट्ठिया भण्णति ।' (निशीथचूर्णिका, ४।३४)।
इन निदर्शनों से भी ‘सोरट्ठिय' का गोपीचन्दन अर्थ शुद्ध है, ऐसा प्रतीत होता है। दशवकालिक के ऐतिहासिक तथ्य
साहित्य युग का प्रतिनिधि होता है। जिस काल, देश में साहित्य बनता है, वह उस काल, देश का दर्पण होता है। युग की सभी भावनाओं की स्फुट अभिव्यंजना उसमें मिलती है। आगम-साहित्य के बारे में भी यही बात है। जिस काल व क्षेत्र में इनकी संकलना हुई थी, उस सामयिक स्थिति का इनमें यत्र-तत्र उल्लेख मिलता है। आवश्यकता है कि उनकी उचित संकलना हो। प्रस्तुत निबन्ध में केवल दशवैकालिक के कई एक तथ्यों की ओर विद्वानों का ध्यान आकृष्ट किए देता हूं। पांचवें अध्ययन (१।५।४७-५४) में एक प्रकरण है कि साधु को दानार्थ, पुण्यार्थ, वनीपकार्थ और श्रमणार्थ बना हुआ आहार नहीं लेना चाहिए। __इन चारों शब्दों से भगवान् महावीर के समय की दान की कुछ परम्पराओं का ज्ञान प्राप्त होता है। उस समय ऐसी रीति प्रचलित रही हो कि जो कोई प्रवासी अपने देश लौटता, वह अपने सामर्थ्य के अनुसार लोगों को भोजन करवाता, बड़े-बड़े जीमनवार करता, भूखों को, अपाहिजों को भोजन, पानी, कपड़ा आदि देता। यह सारा 'दानार्थ' कहा जाता था।
वनीपकार्थ का विस्तृत विवेचन स्थानांग सूत्र में मिलता है। वहां पांच प्रकार के 'वनीपक' गिनाये गये हैं-'अतिहिवणीमगे, माहणवणीमगे, किविणवणीमगे, साणवणीमगे, समणवणीमगे' (ठाणं ५।३।४५४)।
__ वनीपक का अर्थ करते हुए टीकाकार ने लिखा है-अपनी दीनता' दूसरों को दिखाने से तथा तदनुकूल दीन वाणी से जो मिलता है, उसे 'वनी' कहते १. जि. चू. पृ. १७९। २. परेषामात्मदुःस्थत्वदर्शनेनाऽनुकूलभाषणतो यल्लभ्यते द्रव्यं सा 'वनी' तां पिबति
आस्वादयति पातीति वेति वनीपः, स एव वनीपकः। (ठाणं, वृ. ५।२००)