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दशवैकालिक के अर्थ और ऐतिहासिक तथ्य हुए मुनिश्री ने लिखा है-पाणिनि ने प्रतिदिन नियमित रूप से दिए जाने वाले भोजन को 'नियुक्त भोजन' कहा है-'तदस्मै दीयते नियुक्तं'१ (४।४।४६)। इसके अनुसार जिस व्यक्ति को पहले भोजन दिया जाए वह 'आग्रभोजनिक' कहलाता है। इस सूत्र में पाणिनि ने अग्रपिण्ड की सामाजिक-परम्परा के अनुसार व्यक्तियों के नामकरण का निर्देश किया है। साधारण याचक स्वयं नियत भोजन लेने चले जाते थे। ब्राह्मण, पुरोहित और श्रमणों को आमंत्रण या निमंत्रण दिया जाता था। पुरोहितों के लिए निमंत्रण को अस्वीकार करना दोष माना जाता था। बौद्ध-भिक्षु निमंत्रण पाकर भोजन करने जाते थे। भगवान् महावीर ने निमंत्रणपूर्वक भिक्षा लेने का निषेध किया है।
इस प्रकार अर्थ की दृष्टि से भी दशवैकालिक सूत्र निरापद नहीं है। अर्थ करते समय सर्वांगीण ज्ञान की कितनी अपेक्षा रहती है-यह इन टिप्पणियों से स्पष्ट प्रतीत होता है।
इसी तरह ‘दन्तपहोयण', 'दन्तवण', 'संपुच्छण' आदि-आदि शब्द भी ध्यान देने योग्य हैं। सातवें अध्ययन का 'जं तु नामेइ सासयं' (दशवै. ४) में सासयं शब्द का भी अर्थ ठीक नहीं हुआ है।
__'सोरट्ठिय' (दशवै. ५।१।३४) शब्द का अर्थ भी गलत हुआ है। स्थानकवासी सम्प्रदाय के आचार्य आत्मारामजी ने इसका अर्थ 'फिटकरी' किया है। परन्तु दशवैकालिक के उक्त प्रकरण में यह अर्थ ठीक नहीं लगता। क्योंकि प्रकरणगत श्लोकों में सचित्त, हड़ताल, मैनसिल आदि से सने हुए हाथ, कड़छी या बर्तन से भोजन ग्रहण न करे-ऐसा उल्लेख है। फिटकरी स्वयं अचित्त होती है वह एक रासायनिक पदार्थ है। इसलिए 'सोरट्ठिय' का फिटकरी अर्थ उपयुक्त नहीं लगता। इसका अर्थ होना चाहिए–'गोपीचन्दन ।'-(एक प्रकार की मिट्टी, जिसको रगड़कर तिलक आदि किए जाते हैं)-इस अर्थ को पुष्ट करने वाला प्रमाण हमें 'शालिग्रामनिघण्टु' में मिलता है।
वहां भी उसका अर्थ गोपीचंदन ही किया गया है।
टीकाकार ने 'सोरट्ठिय' का अर्थ तवरिका किया है। 'तुवरिका' गोपीचन्दन का ही पर्यायवाची नाम है, यह टिप्पण के श्लोक से सिद्ध हो जाता है।
१. भिक्षुशब्दानुशासनम् : 'नियुक्तं दीयते' (७।२।७३)। २. सौराष्ट्रयाढकी तुवरी, पर्पटी कालिका सती।
सुजाता देशभाषायां, गोपीचन्दनमुच्यते ।। (शालिग्रामनिघण्टुभूषण, पृ. ५७२)