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दशवैकालिक के अर्थ और ऐतिहासिक तथ्य इस श्लोक को मूल सूत्र का श्लोक ही मान लिया गया हो। इसकी पुष्टि इस बात से भी हो जाती है कि यह श्लोक मूल नियुक्ति में भी ज्यों का त्यों मिलता है।
सातवें अध्ययन में भी ऐसा ही कुछ हुआ है। मुनिश्री ने इसका समाधान यों किया है-अगस्त्यसिंह मुनि और जिनदास महत्तर की चूर्णियों में सातवें अध्ययन में आठवें, नवें और दसवें श्लोक की जगह दो ही श्लोक हैं और वे इन तीनों श्लोकों से भिन्न हैं। विषय-वर्णन की दृष्टि से कोई अन्तर नहीं जान पड़ता, किन्तु शब्द-संकलना की दृष्टि से चूर्णि में व्याख्यात श्लोक गंभीर और प्रशस्त हैं। टीकाकार ने ये श्लोक कहां से लिए, यह अभी ज्ञात नहीं हो सका है। संभव है या तो टीकाकार के सामने चूर्णिकार से भिन्न परम्परा के आदर्श रहे हों या किसी दूसरे शास्त्र की सरल गाथाओं ने इनका स्थान पा लिया हो, कुछ भी हो यह बहुत ही विमर्शनीय-स्थल है।
___ इसी प्रकार वर्तमान में प्रचलित पाठ टीकाकार हरिभद्रसूरि द्वारा सम्मत पाठ अगस्त्यसिंह मुनि द्वारा सम्मत पाठों में विभिन्नता है। यह अभी तक अन्वेषण का विषय है कि टीकाकार चूर्णिकारों की कृतियों की क्यों उपेक्षा कर, स्वतंत्र रूप से चलते रहे। यह निर्विवाद है कि चूर्णियां टीकाओं से बहुत प्राचीन हैं। दशवैकालिक पर अगस्त्यसिंह मुनि की चूर्णि सबसे प्राचीन मानी जाती है। उनके द्वारा कृत चूर्णि में और टीकाकार के सम्मत पाठों में अत्यधिक अन्तर क्यों रहा है? यह आज भी प्रश्नवाचक चिह्न बना हुआ है। जहां-जहां टीकाकार
और चूर्णिकार पाठ के विषय में एक मत नहीं है, उन पाठों का हमने संकलन किया है परन्तु सारी सामग्री यहां पर प्रस्तुत की जाय, वह इस निबन्ध का विषय नहीं है। अतः संकेतमात्र दिया जाना ही संभव है।
२३. दशवैकालिक के अर्थ और ऐतिहासिक तथ्य अर्थ की दृष्टि से
दशवैकालिक (५।१।६७) में उल्लिखित 'निस्सेणिं फलगं पीढं....' यह श्लोक भी अर्थ की दृष्टि से विवादग्रस्त है। चूर्णिकार और टीकाकार का मतद्वैध स्पष्ट प्रतीत होता है। चूर्णिकार द्वारा किया गया अर्थ सही है, इसकी संगति आयारचूला के (१८७वें) सूत्र से स्पष्ट प्रतीत होती है। मुनिश्री