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आगम सम्पादन की यात्रा
सूत्र जैन मुनियों के लिए दाल - -रोटी सा बना हुआ है । परन्तु इसके चिन्तन और मनन से ऐसा प्रतीत होता है कि यह साधारण योग्य नहीं है। इसमें इतना संक्षेपीकरण है कि जब तक आचारांग और निशीथ सूत्र का पूरा-पूरा अनुशीलन नहीं किया जाता तब तक इसके कई विषय बहुत अस्पष्ट रह जाते हैं। कई शब्दों का मूल अर्थ पकड़ा ही नहीं जाता।'
ये शब्द हमने उनके मुंह से कई बार सुने । हमें लगा - इतने बड़े विद्वान् मुनि, जिनका प्रतिक्षण चिन्तन और मनन में ही समय व्यतीत होता है, की भी इस साधारण सूत्र के प्रति यह धारणा है, तब हम जैसे विद्यार्थियों के लिए तो कहना ही क्या ?
दशवैकालिक सूत्र के कुछ एक दुरूहस्थल
भगवान् महावीर के लगभग एक हजार वर्ष बाद देवर्द्धिगणी क्षमाश्रमण के सत्प्रयत्न से आगमों का विद्यमान रूप स्थिर किया गया था । उसके बाद आज तक ऐसी कोई संगति नहीं हुई, जिससे पाठों की विविधता पर विचार किया गया हो। इसके अभाव में पाठ परिवर्तित हुए, अर्थ में विपर्यास हुआ और अन्यान्य ग्रंथों के श्लोक भी इसमें सम्मिलित हो गये। इसलिए यह सामयिक आवश्यकता है कि इस पर पूरा-पूरा विचार किया जाए और इस दिशा में कुछ कार्य किया जाए ।
इन्हीं पहलुओं को छूने वाले कुछ उदाहरण विद्वानों के समक्ष रख कर इस ओर उनका ध्यान आकृष्ट करना चाहता हूं। पाठ की दृष्टि से - दशवैकालिक की प्रतियों में छट्टे अध्ययन का श्लोक - 'वयछक्कं', 'कायछक्कं' उपलब्ध होता है और कई प्रतियों में नहीं । टीकाकार श्रीहरिभद्रसूरि ने 'नियुक्तिकार आह' ऐसा कहकर इस श्लोक का उल्लेख किया है । दशवैकालिक सूत्र पर अगस्त्यसिंह मुनि की और जिनदास महत्तर की दो विश्रुत चूर्णियां हैं । उनमें भी इस श्लोक का उल्लेख हुआ है। अगस्त्यसिंह मुनि ने 'तेसिं विवरणत्थमिमा निज्जुत्ति'"ऐसा लिखकर इस श्लोक का उल्लेख किया है। एक प्राचीन आदर्श (प्रति) में 'इयं निर्युक्तिगाथा' लिखकर यह गाथा दी है। संभवतः ऐसा हुआ है कि प्राचीन समय में 'निर्युक्तिकार आह' ऐसा लिखकर यह श्लोक दिया जाता रहा हो और धीरे-धीरे कालान्तर में 'निर्युक्तिकार आह' ये शब्द छूट गये हो और
१. अ. चू. पृ. १४४ ।