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आगम- सम्पादन की यात्रा
(छज्जीवणिया ) नामक चौथा अध्ययन, कर्मप्रवाद (आठवें) पूर्व से पिण्डैषणा नामक पांचवां अध्ययन, सत्यप्रवाद (छट्ठे) से 'वाक्य-शुद्धि' नामक सातवां अध्ययन और अवशिष्ट सात अध्ययन प्रत्याख्यान (नौवें ) पूर्व की तीसरी वस्तु से निर्यूहण किए गए हैं ।
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दूसरे पक्ष की यह मान्यता रही है कि 'मनक' पर अनुग्रह करके गणिपिटक-द्वादशांगी से दशवैकालिक सूत्र का निर्यूहण किया गया है ।
प्रारंभ में जैन सूत्र गणिपिटक या 'श्रुतज्ञान' की संज्ञा से व्यवहृत होते थे । नंदी सूत्र में अंग प्रविष्ट और अनंग प्रविष्ट या अंग बाह्य आदि संज्ञाएं मिलती हैं । उपांग, मूल, छेद आदि संज्ञाएं नहीं थीं । मूल, छेद, आवश्यक आदि संज्ञाएं बहुत बाद में व्यवहृत हुई ।
जैन सूत्रों में नंदी, अनुयोगद्वार, दशवैकालिक और उत्तराध्ययन-इन चारों की मूल संज्ञा है। इसकी संगति यों है - आगम के अनुसार मोक्ष के चार मूल साधन हैं—–ज्ञान, दर्शन, चारित्र और तप । इन चारों सूत्रों में क्रमशः इन्हीं की प्रधानता है । दशवैकालिक सूत्र में साधु के आचार का निरूपण है । इसलिए इसे मूल संज्ञा दी गई है।
दशवैकालिक सूत्र के विषय
इस सूत्र के दस अध्ययन और दो चूलिकाएं हैं। एक-एक अध्ययन की समग्र दृष्टि से, नियुक्तिकार के मतानुसार, इसके विषय यों हैं
'पहले अध्ययन में धर्म की प्रशंसा की गई है और धर्म का स्वरूप भी बताया गया है । दूसरे अध्ययन में यह बताया गया है कि उस धर्म का पालन परीषहों में धैर्य से ही किया जा सकता है। तीसरे अध्ययन में छोटी आचार कथा, जो कि आत्मा के लिए संयम का उपाय है, का विवेचन है। चौथे अध्ययन में छह प्रकार के जीवों में संयम रखने का विधि-विधान है। पांचवें अध्ययन में भिक्षा-विधि का समग्र विवेचन है । छट्ठे में साधु के आचार का विस्तृत विवरण है। सातवें अध्ययन में वाणी के विवेक का निरूपण है। आठवें
१. दशवैकालिक नियुक्ति, गाथा, १५, १६ ।
२. दशवैकालिक नियुक्ति, गा. १७ ।
३. नाणं च दंसणं चेव चरितं च तवो तहा ।
एस मग्गो त्ति पण्णत्तो, जिणेहिं वरदंसिहिं ।। (उत्तरा २८ । २)