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आगम-सम्पादन की यात्रा कार्य में कितने पंडित काम कर रहे हैं?' उनका आशय गृहस्थ वेतनभोगी पंडितों से था। आचार्यप्रवर कहते–'एक भी नहीं।' उन्हें आश्चर्य होता, परन्तु नहीं मानने जैसी बात भी तो नहीं थी। प्रतिदिन होने वाले कार्य प्रत्यक्ष प्रमाण थे। आचार्यप्रवर कहते-'तेरापंथ शासन में अध्ययन-अध्यापन का सारा कार्य गुरु-परम्परा से होता है। साधु-साध्वियों को पढ़ाने के लिए कोई भी वेतनभोगी पंडित नहीं रहता। हां! यदि कोई भोजन की तरह विद्या-दान भी करना चाहे तो हम यथावकाश उसे ले सकते हैं। गुरु-परम्परा के कारण ही अर्थ की परंपरा अक्षुण्ण रह सकती है। केवल पंडितों द्वारा किए गए कार्यों से अनर्थ हआ है-यह आजकल प्रकाशित आगम-साहित्य से सहजतया जाना जा सकता है। अगस्त्यसिंह मुनि की चूर्णि
यह चूर्णि हमें गत चतुर्मास में मिली। जो पाठ और अर्थ चिन्तनीय रखे गए थे उनका समाधान इस चूर्णि से हुआ, परन्तु कई एक नये पहलू भी सामने आए जिनका उल्लेख स्वतंत्र निबन्धों में किया जाएगा। दशवैकालिक की यह सबसे प्राचीन चूर्णि है, ऐसा विद्वानों का अभिमत है। मुनि पुण्यविजयजी के अथक परिश्रम से यह प्रकाश में आ सकी है। इसके प्रकाशन से नए तथ्यों की
ओर ध्यान गया है। पाठ संबंधी कठिनाई कुछ हल अवश्य हुई है, फिर भी कई स्थल चिन्तनीय रह जाते हैं। उनके समाधान के लिए जैनेतर ग्रन्थों का अध्ययन अपेक्षणीय था। वह भी किया गया। उससे काफी समस्याएं हल हुईं। इस कार्य में अगस्त्यसिंह मुनि के पाठ और अर्थ मान्य किये गए हैं, परन्तु अनेक स्थलों पर स्वतंत्र चिन्तन से भी काम लिया गया है। ऐसा प्रतीत होता है कि कई स्थलों में अगस्त्य मुनि भी अर्थ पकड़ने में सफल नहीं हुए हैं। यह अन्यान्य प्रमाणों से पुष्ट हो जाता है। ऐसी अवस्था में स्वतंत्र चिन्तन से काम नहीं लेना आवश्यक हो जाता है।
शब्दों की संस्कृत-छाया में भी काफी समय लगाना पड़ा। सर्वप्रथम टीकाकार के आधार पर संस्कृत रूप लिखे गये, परन्तु उससे संतोष नहीं हुआ। तब स्वतंत्र चिन्तन से कई स्थलों को बदलना पड़ा और जो संस्कृत रूप निर्धारित किए गए उन पर सप्रमाण विस्तृत टिप्पणियां भी लिखी गई हैं।
इसी प्रकार एक विषय-सूची भी तैयार कर ली गई जिससे कि विहंगम दृष्टि से सारे सूत्रों का प्रतिपाद्य सहजतया सामने आ सके। एक विशेष बात