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दशवैकालिक : कार्य-पद्धति
यह रही कि विषय-सूची के साथ-साथ पारिभाषिक शब्दों को भी अलग-अलग छांट लिया गया और चूर्णिकारों के आधार पर वे परिभाषाएं भी दे दी गईं, जिससे पाठक को अर्थ की मौलिकता भी ज्ञात हो सके । चूर्णि की प्रति फोटोप्रिन्ट थी । पढ़ने में कुछ कठिनाई भी होती, परन्तु कार्य-निष्ठा के आगे वे कठिनाइयां गौण थीं। कार्य बहुत ही प्रामाणिकता और तत्परता से किया गया है।
जहां कहीं विचारणीय-स्थल आया उसे चिन्तन के लिए छोड़ दिया गया। तत्पश्चात् अन्यान्य स्रोतों द्वारा उस स्थल को समझने का प्रयास किया गया। समझ में नहीं आने तक अन्वेषण चालू रहा और अन्यान्य विद्वानों से भी उक्त स्थलों पर परामर्श लिया गया ।
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यह तो सर्वमान्य है कि भगवान् महावीर का विहार- क्षेत्र बिहार और उसका पार्श्ववर्ती क्षेत्र ही रहा है। सूत्रों में स्थानीय शब्द संगृहीत हुए हैं, यह स्पष्ट है । जब आचार्यश्री सीतापुर में विराजते थे वहां के डॉक्टर नवलबिहारी मिश्र तथा उनके साथी अवधी भाषा का कोश तैयार कर रहे थे । अवधी भाषा में प्राकृत और पाली के अनेक शब्द हैं। उनका सही अर्थ पकड़ने में उन्हें कठिनाई अनुभव हो रही थी । वे आचार्यश्री के पास आए और उन्होंने अपनी कठिनाइयां सामने रखीं । यथाशक्य उनका समाधान किया गया । दशवैकालिक (७/२८) में प्रयुक्त 'मइयं' शब्द के अर्थ का निश्चय टीकाकार और चूर्णिकारों के आधार पर कर लिया गया, किन्तु उसका हार्द समझ में न आ सका था । कई जानकर व्यक्तियों से पूछा गया, कृषिकारों से भी पूछा गया, परन्तु सही अर्थ या प्रणाली समझ में नहीं आयी। डॉक्टर मिश्र से पूछे जाने पर उन्होंने कहा- यहां 'मडया' शब्द का प्रयोग होता है । यह शब्द खेत में बीज बो देने के पश्चात् एक समकाष्ठ के टुकड़े से सारी जमीन को सम बनाने के अर्थ में रूढ़ है । यही अर्थ टीकाकारों और चूर्णिकारों ने किया है । सारी प्रणाली समझ में आ गई। कहने का तात्पर्य यह है कि तत्तद्देशीय शब्दों को यदि तत्तद्देशीय लोगों के द्वारा न समझा जाए तो सही अर्थ पकड़ने में कठिनाई होती है । इस प्रकार का प्रयास किया गया और बहुत कुछ सफलता प्राप्त हुई ।
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कार्य-काल में कई बार उतार-चढ़ाव आए । कार्य-प्रणाली में परिवर्तन हुए। ज्यों-ज्यों अन्वेषण का कार्य आगे बढ़ता गया त्यों-त्यों नए-नए तथ्य सामने आए। अब दशवैकालिक सूत्र का कार्य प्रायः समाप्ति पर है ।