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दशवैकालिक : कार्य-पद्धति
मंजुलाजी ( गणबहिष्कृत) तथा साध्वीश्री कनकप्रभाजी ने उत्तराध्ययन और दशवैकालिक सूत्र की निर्युक्ति का अनुवाद प्रारम्भ किया है। इसी प्रेरणा के फलस्वरूप अनेक व्याख्या -ग्रन्थों का पारायण हो चुका है। इसके आलोक में हम बहुत - बहुत लाभान्वित हुए हैं और हमारी परम्पराओं को पुष्टि मिली है ।
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२१. दशवैकालिक : कार्य-पद्धति
एक छोटी-सी कल्पना इतना बड़ा रूप धारण करेगी यह कौन जानता था ? टिमटिमाती लौ इतना प्रकाश-पुंज बिखेर देगी - - यह किसने जाना ? अणुचिन्तन एक महान् कार्य की ओर प्रेरित करेगा, यह कौन जानता था ?
'धर्मदूत' के वाचन से आचार्यश्री के चिन्तन में एक कल्पना उठी । उस पर मन ही मन विचार हुआ और उन्होंने सायंकाल साधुओं के समक्ष सारी कल्पना कह डाली। कल्पना का स्वागत हुआ और एक साथ सारे कंठ गूंज उठे - 'हम यह कार्य करके रहेंगे।' आशा में जीवन होता है, संकल्प में बल - यह कौन नहीं जानता !
आगम-कार्य का प्रारम्भ इसी विचार-मंथन का नवनीत है। वर्षों से आचार्यप्रवर के चिन्तन में यह तथ्य आता रहा है कि आगम- साहित्य बहुत ही अस्त-व्यस्त पड़ा है - उसे यदि व्यवस्थित किया जाए तो जैन- दर्शन की वैज्ञानिकता स्वयं निखर उठेगी और अनेक विद्वान् इस ओर सहजतया आकृष्ट हो सकेंगे। परन्तु एक धर्म संघ के अधिनायक होने के कारण अन्यान्य कार्यों की बहुलता ने इस कल्पना को साकार नहीं होने दिया । नियति भी कुछ होती है - काल का परिपाक हुआ और देखते-देखते आगम-कार्य चालू हो
गया ।
उज्जैन का चतुर्मास आगम-कार्य के लिए वरदान सिद्ध हुआ । चतुर्मास के प्रारम्भ में ही एक दिन आचार्यप्रवर ने साधु-साध्वियों की परिषद् में 'आगम-कार्य' पर विस्तृत प्रकाश डाला और कई साधु-साध्वियों को निर्देशक के रूप में कार्य करने का आदेश दिया। निर्देशक के नीचे कौन-कौन साधुसाध्वी यह कार्य करे इसकी समुचित व्यवस्था कर दी गई। सर्वप्रथम सूत्रों के शब्दों का 'अकारादि अनुक्रमणिका' के आधार पर चयन करना था ।