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व्याख्या-ग्रन्थों का अध्ययन क्यों? दशवैकालिक सूत्र के सर्वांगीण सम्पादन का कार्य चल रहा था। अनुवाद और टिप्पण लिखे जा रहे थे। ओघनियुक्ति और पिंडनियुक्ति के अध्ययन से टिप्पण लिखने या हार्द समझने में बहुत सहयोग मिला। ‘ओघ-नियुक्ति' का वाचन पूर्ण हुआ। “पिण्ड-नियुक्ति' का वाचन प्रारम्भ हुआ। एक दिन मुनिश्री ने कहा-पिण्डनियुक्ति को पढ़े बिना दशवैकालिक सूत्र के पांचवें अध्ययन 'पिण्डैषणा' को सम्पूर्ण रूप से नहीं समझा जा सकता और ओघनियुक्ति के पारायण के बिना उत्तराध्ययन में वर्णित ‘दसविध सामाचारी' आदि को नहीं समझा जा सकता।
आगमरचना अत्यन्त संक्षिप्त शैली में हुई है। उसका हार्द व्याख्याग्रन्थों से स्पष्ट होता है। उदाहरण के लिए उत्तराध्ययन सूत्र में प्रथम अध्ययन में एक पद है-'तओ झाएज्ज एगओ'। इसका शाब्दिक अर्थ है-'ध्यान अकेला करे।' किन्तु इससे वास्तविक अर्थ की अभिव्यक्ति नहीं होती। इसका हार्द
ओघनियुक्ति के अध्ययन से समझ में आया। उसमें एक स्थान पर दसविध मंडलियों का वर्णन है, जैसे-स्वाध्याय मंडली, आहार मंडली, शयन मंडली आदि। इन मंडलियों का तात्पर्य यह है कि दस प्रकार के कार्य सामुदायिक होते हैं, मंडलियों में किए जाते हैं। किन्तु ध्यान मंडलीगत नहीं होता। वह अकेले में होता है। इतना ज्ञात होने पर 'तओ झाएज्ज एगओ' के पीछे जो रहस्य छिपा हुआ है, वह स्पष्ट हो जाता है।
__ आचारांग सूत्र में दो शब्द-युगल आते हैं-'समणुन्न असमणुन्न', 'पारिहारिअ अपारिहारिअ।' टीकाकार ने इनका संक्षिप्त अर्थ किया है। किन्तु वह अर्थ पूर्ण परम्परा को अभिव्यक्त नहीं करता। अभी-अभी जब निशीथ भाष्य का वाचन हो रहा था, तब उसमें परिहारिअ, अपरिहारिअ और अणुपरिहारिअ-ये तीन शब्द आए। भाष्य तथा चूर्णिकार ने उनका विस्तार से अर्थ समझाया है। ये जैन शासन के विशेष शब्द हैं। इनके पीछे एक विशिष्ट परम्परा रही है, जो केवल शब्द से अभिव्यक्त नहीं होती। वह परम्परा यह है
प्रायश्चित के संदर्भ में तप दो प्रकार का होता है-शुद्ध तप और परिहार तप। जो मुनि धृति से दुर्बल तथा शरीर से क्षीण होता है उसे प्रायश्चितस्वरूप शुद्ध तप दिया जाता है और जो मुनि धृति से तथा शरीर से बलवान् होता है १. उत्तराध्ययन १।१०।।