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आगम- सम्पादन की यात्रा
२०. व्याख्या -ग्रन्थों का अध्ययन क्यों ?
आचार्यश्री तुलसी ने वि. सं. २०१२ में आगम - सम्पादन का कार्य प्रारम्भ किया। यह तेरापंथ शासन के लिए एक नया कार्य था । इससे पूर्व तेरापंथ के किसी भी आचार्य ने आगम - सम्पादन या अनुवाद का सर्वांगीण कार्य हाथ में नहीं लिया था । श्रीमज्जयाचार्य इसके अपवाद हैं; उन्होंने कई सूत्रों का राजस्थानी भाषा में पद्यमय अनुवाद किया है तथा यत्र-तत्र टिप्पण भी लिखे हैं । 'भगवती की जोड़' उनकी उत्कृष्ट कृति है ।
आगम- सम्पादन कार्य के साथ-साथ व्याख्या -ग्रन्थों के अनुशीलन की प्रवृत्ति भी बढ़ी। ऐसे तो हमारे आचार्य तथा साधु चूर्णि, टीका का वाचन करते ही थे, किन्तु वह एक सीमित उद्देश्य की पूर्ति के लिए किया जाता था । तेरापंथ के चतुर्थ आचार्य श्रीमज्जयगणि ने आगम के व्याख्या -ग्रन्थों का गहरा अध्ययन किया और उनका प्रचुर मात्रा में यत्र-तत्र प्रयोग भी किया तथा संभव है कि हमारे शासन - तन्त्र की परम्पराओं के निर्माण में चूर्णिगत तथ्यों का पुष्ट आधार रहा हो । किन्तु यह वाचन श्रीमद् जयाचार्य जैसे महान् विद्वानों तक ही सीमित रहा, वह व्यापक नहीं बन सका । जब वि. सं. १९९३ में आचार्यश्री ने तेरापंथ का शासन - तन्त्र संभाला तब उनके मन में व्याख्या -ग्रन्थों के 'पठनपाठन' के प्रति एक रुचि उत्पन्न हुई और वे इसकी पृष्ठभूमि के निर्माण में लग गए। संस्कृत भाषा का जो बीजारोपण तेरापंथ के आठवें आचार्य श्रीमद् कालूगणी के शासनकाल में हुआ था, वह पल्लवित होने लगा । अनेक साधुसाध्वियां संस्कृत-भाषा के पठन-पाठन में लग गए। देखते-देखते वे संस्कृतभाषा में पारंगत हो गए और ग्रन्थों का प्रणयन होने लगा। प्राकृत का अध्ययन भी होता रहा ।
आगम- सम्पादन कार्य के प्रारम्भ होते ही यह प्रतीत होने लगा कि व्याख्या-ग्रन्थों के पारायण के बिना सूत्रगत तथ्यों का हार्द नहीं पकड़ा जा सकता। यह धारणा पुष्ट होती गई और हमारी रुचि उस ओर तीव्र होती गई । इस अन्तराल में कई जैन विद्वानों ने भी हमें चूर्णि टीकाओं के अध्ययन की बात कही । हमने अपना पारायण प्रारम्भ किया । आचार्यश्री के पास 'ओघनिर्युक्ति' का वाचन प्रारम्भ हुआ। मुनिश्री नथमलजी वाचन कर उनका हार्द समझाते और हम साधु-साध्वियां उसका श्रवण करते। उन दिनों