________________
आगमों के व्याख्यात्मक ग्रन्थ
७३
मूलागमों में तथा व्याख्यात्मक ग्रन्थों में हुआ है। इसीलिए जैन-साहित्य भाषा-विज्ञान की दृष्टि से भी बहुत ही महत्त्वपूर्ण है।
सोलहवीं-सत्तरहवीं शताब्दी में संस्कृत भाषा का अभ्यास अतिन्यून हो गया। जैन संघ दो भागों में विभक्त हो गया मूर्ति-पूजक, अमूर्ति-पूजक । एक पक्ष आगम, नियुक्ति, भाष्य, चूर्णि, टीका आदि को प्रमाण मानकर चलता है; दूसरा पक्ष मूलागम तथा उनसे मिलते-जुलते अर्थ को स्वीकार करता है। इस विषय में काफी संघर्ष हुआ। टब्बे लिखने की परम्परा का जन्म हुआ।
अठारहवीं शताब्दी में पायचन्द्रसूरि और धर्मसिंह मुनि ने गुजराती में टब्बे लिखे। विस्तृत टीकाओं का रसपान जिनके लिए सुगम नहीं था, उनके लिए ये बड़े उपयोगी बने। दूसरे ज्यों-ज्यों संस्कृत का प्रसार कम हो रहा था त्योंत्यों लोग विषय से दूर होते जा रहे थे। इनकी (टब्बों की) रचना उस कमी की पूर्ति करने में सिद्ध हुई। हजारों जैन मुनि इन्हीं के सहारे सिद्धान्त के निष्णात बने।
स्तवकों की भाषा राजस्थानी मिश्रित गुजराती है। इनमें मौलिक चिन्तन कम मिलता है, केवल टीकाकारों का अनुकरण ही विशेषतः दृष्टिगोचर होता है।
__उन्नीसवीं-बीसवीं शताब्दी में जैन तेरापंथ के चतुर्थ शासनाधिपति श्रीमज्जयाचार्य एक प्रशस्त टीकाकार और स्तवककार के रूप में सामने आए। उनकी तलस्पर्शिनी मेधा आज भी विद्वानों का पथ प्रशस्त कर रही है। उन्होंने मौलिक चिन्तन दिया और अपनी प्रखर प्रतिभा से मूलागमों से साररूप नवनीत उपस्थित किया। जब जैन विद्वान् दलसुखभाई मालवणिया, कानपुर में आगमकार्य की जिज्ञासा लिए हए आए थे तब प्रसंगोपात्त उन्हें श्रीमज्जयाचार्य के ग्रन्थ दिखलाए गए। सहसा उन्होंने कहा कि यदि यह कार्य जन-सुलभ हो सके तो बहुत लाभप्रद हो सकता है।
___ इस प्रकार आगमों का व्याख्यात्मक-साहित्य अति प्रचुर मात्रा में लिखा गया है और समय के व्यवधान के साथ-साथ उसका विस्तार भी होता गया। सद्यस्क आवश्यकता है कि उन व्याख्यात्मक ग्रन्थों का हिन्दी में अनुवाद हो
और वे सुसंपादित होकर जनभोग्य बन सकें। १. मुनिश्री नथमलजी के 'श्रीमज्जयाचार्य की साहित्य-साधना पर दृष्टि' निबन्ध से।