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आगम- सम्पादन की यात्रा
पर और भी अनेक टीकाएं हैं, परन्तु यह टीका ही सर्वोत्तम मानी जाती है और एम.ए. आदि कक्षाओं में वही पढ़ाई जाती है । ज्योतिष-ग्रन्थ, चिकित्साग्रन्थ, भक्ति-ग्रन्थ, न्याय-ग्रन्थ, दार्शनिक-ग्रन्थ भी जैनाचार्यों की अपूर्व देन हैं । अभी-अभी मैसूर में एक व्याकरण-ग्रन्थ उपलब्ध हुआ है जो कि एक जैन मुनि की कृति है । वह अपनी कोटि का एक ही है ।
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टीकाकारों का काल संघर्ष का काल था । जैनेतर दार्शनिक जैन धर्म के उन्मूलन पर डटे हुए थे । उन्हें स्थान-स्थान पर वाद-विवाद के लिए ललकारा जाता। जैनाचार्य इसमें भी पीछे नहीं रहे । न्याय ग्रन्थों का सुघटित ग्रन्थन हुआ और जैनेतर तर्क कार्कश्य का उन्मूलन किया गया। इन संघर्षों का प्रभाव आगम की आत्मा पर पड़ा। वे आगम - साहित्य की समृद्धि से कुछकुछ उदासीन-से हुए। इसलिए उस समय जैनाचार्यों का आगम-ग्रन्थों पर कुछ लिखना छूट-सा गया। कभी-कभी कोई लिख भी देते - परन्तु वह नगण्य
सा था ।
इस प्रकार आगम - साहित्य से सम्पर्क कम रह जाने से आगम-ज्ञान की गुरुता नहीं रही । परम्पराओं का विच्छेद होने लगा। मंत्र - यंत्र के बखेड़ों से मूलाचार में कमी आयी। इतना ही नहीं, आगमकारों का अभिप्रेत अर्थ भी उनकी समझ से दूर होता गया । इसीलिए टीकाओं में आगमों से विरुद्ध अनेक तथ्यों का समावेश हुआ है ।
दीपिका, वार्तिक और स्तवक (टब्बा)
टीकाएं विस्तृत होती थीं। वे सभी के लिए सुभोग्य नहीं बन सकीं । इसीलिए आचार्यों ने लघु-टीका (दीपिका) लिखी । अनेक सूत्रों पर दीपिकाएं आज भी उपलब्ध हैं। दीपिकाएं केवल 'शिष्यसुबोधाय' के लिए बहुत उपयोगी सिद्ध हुईं ।
संस्कृत भाषा का प्रभाव मिटता गया । विभिन्न स्थानों में विभिन्न भाषाओं का आधिपत्य होने लगा । सोलहवीं शताब्दी से अठारहवीं शताब्दी तक मराठी- -भाषा का उत्कर्ष काल माना जाता है । उसी प्रकार राजस्थानी, तेलगु, कन्नड़, तमिल आदि भाषाएं भी पूर्ण उन्नत हो रही थीं। उनमें साहित्य की रचना होना स्वाभाविक था ।
जैनाचार्य लोक - भाषा के पोषक रहे हैं । तत्तद्देशीय शब्दों का संकलन