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आगमों के व्याख्यात्मक ग्रन्थ
विशद ज्ञान हो सकता है। टीकाकारों का साहित्य के सभी क्षेत्रों में प्रवेश था। वे व्याकरण तथा भाषा-विज्ञान के निष्णात पंडित थे। सामाजिक तथा परम्परागत ज्ञान से भी वे परिचित थे। इसी प्रकार इतिहास, भूगोल, रसायनशास्त्र, शरीरविज्ञान, औषधि-विज्ञान आदि का भी उनका अध्ययन था। यन्त्र, मन्त्र और तन्त्र के तो वे अच्छे ज्ञाता थे। इन सब की स्पष्ट झांकी किसी भी सांगोपांग टीका से सहजतया हो सकती है। परन्तु एक बात जरूर खटकने योग्य है। यद्यपि टीकाकारों की सार्वदिक् विद्वत्ता में संशय नहीं किया जा सकता, फिर भी टीकाओं का बहुत-सा क्षेत्र आगम से भिन्न रहा है। एक-दो टीकाकारों को छोड़कर शेष सभी टीकाकार आगमेतर ग्रन्थों की टीका करते हैं। यह क्यों? इसका समाधान सरल नहीं है। आगमों के सर्वप्रथम संस्कृत टीकाकार हरिभद्र सूरि हैं। उनका जीवनकाल विक्रम की आठवीं शताब्दी है। उन्होंने आवश्यक, दशवैकालिक, नन्दी, अनुयोगद्वार, जम्बूद्वीप-प्रज्ञप्ति और जीवाभिगम पर टीकाएं लिखी हैं। तत्त्वार्थसूत्र और दशवैकालिक पर इनकी लघुवृत्ति भी है। इनके साथ-साथ अनेक दार्शनिक ग्रन्थों पर भी उनकी टीकाएं विश्रुत हैं। उन्होंने क्षेत्र समासवृत्ति, लोकबिन्दु आदि भौगोलिक ग्रन्थ भी लिखे
और अनेक प्रकीर्णक ग्रन्थों की रचना की। शीलांकसूरि ने आचारांग और सूत्रकृतांग पर टीकाएं लिखीं। इनका काल विक्रम की आठवीं-नवीं शताब्दी से है। अनुयोगद्वार पर मलधारी हेमचन्द्र की टीका मननीय है। इनका कालमान विक्रम की बारहवीं शताब्दी है। शेष नव अंगों के टीकाकार हैं अभयदेवसूरि । इनका जीवन-काल विक्रम की बारहवीं शताब्दी है। नन्दी, प्रज्ञापना, व्यवहार, चन्द्र-प्रज्ञप्ति, जीवाभिगम, आवश्यक, बृहत्कल्प, राजप्रश्नीय आदि के टीकाकार आचार्य मलयगिरि हैं।
यह संस्कृत भाषा के उत्कर्ष-काल की कहानी है। जैनाचार्यों की संस्कृत-सेवा अद्वितीय है। संभवतः कुछ क्षेत्रों में संस्कृत-भाषा जन-भाषा के रूप में स्वीकृत कर ली गई थी। अतः यह आवश्यक था कि धर्माचार्य भी उसी में लिखते या बोलते थे। इस काल में अनेकानेक संस्कृत ग्रन्थों का प्रणयन हुआ। ग्रन्थ-प्रणयन की परिधि केवल आगम-साहित्य तक सीमित नहीं रही, अन्यान्य आगमेतर साहित्य पर भी उन्होंने टीकाएं लिखीं। अपने ग्रन्थों पर उनकी टीकाएं आज भी उपलब्ध हैं। भारत के कविशेखर बाण के महान् काव्य 'कादम्बरी' पर आज भी जैनाचार्य द्वारा रचित टीका ही सर्वमान्य है। इस ग्रन्थ