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आगमों के व्याख्यात्मक ग्रन्थ
६७ श्रीमद द्रोणाचार्य हैं, को प्रथम भद्रबाह कृत मानते हैं। किन्तु नियुक्ति की प्रथम गाथा में 'दशपूर्वधर' आदि को नमस्कार किया गया है। इसलिए स्वयं टीकाकार यहां यह शंका उपस्थित करते हैं कि 'चतुर्दश पूर्वधर' आचार्य दशपूर्वधर को क्यों नमस्कार करते हैं? इस प्रश्न का समाधान स्वयं वे ही 'गुणाहिए वंदयणं' कहकर कर देते हैं।
परन्तु यह समाधान औपचारिक लगता है। श्रुत-सम्पदा के आधार पर पदवियों का विभाजन होता था, ऐसी जैन-परम्परा रही है। ऐसी अवस्था में विशिष्ट श्रुतधर द्वारा अल्प श्रुतधरों को नमस्कार किया जाना संगत नहीं लगता।
अन्तिम दशपूर्वधर वज्रस्वामी थे। द्वितीय भद्रबाहु उनके बाद हुए। इनके द्वारा दशपूर्वधरों को नमस्कार किया जाना संगत लगता है। अतः इसको द्वितीय भद्रबाहु की रचना मानना ज्यादा तथ्यपूर्ण प्रतीत होता है। ___ दूसरी बात है नियुक्तियों की असंगत बातें। श्रीमज्जयाचार्य ने आगमग्रन्थों की प्रामाणिकता का निर्णय करते हुए लिखा-गणधर कृत ग्यारह अंग स्वतः प्रमाण हैं। साथ-साथ केवली, मनःपर्यवज्ञानी, अवधिज्ञानी, चतुर्दश पूर्वधर और सम्पूर्ण दशपूर्वधर की रचनाएं भी प्रमाण हैं। प्रामाणिकता की यह इयत्ता बुद्धिगम्य है। किन्तु अधिक व्यापकता के लिए उन्होंने यह भी लिखा कि-'इनके सिवाय अन्यान्य ग्रन्थों की वे बातें भी मुझे मान्य हैं जो आगमिक तथ्यों की प्रतिकृति हैं। आगम से विपरीत जाने वाले तथ्य कभी मान्य नहीं हैं, चाहे वे किसी के द्वारा क्यों न लिखे गए हों।'
इस निर्णय के आधार पर यह फलित होता है कि दशपूर्वधर तक का ज्ञान विसंवादी नहीं होता। वे वही कहते हैं जो अंगों से मिलता-जुलता है। अतः उनका ज्ञान प्रमाण है।
इसलिए नियुक्तियों को प्रथम भद्रबाहु कृत मानना स्वयं आपत्तिजनक है। कारण कि नियुक्तियों में अनेक स्थल विसंवादी हैं । उदाहरणस्वरूप कुछेक नीचे दिए जाते हैं
१. स्थानांग सूत्र में सनत्कुमार चक्रवर्ती की अन्तक्रिया कही है और आवश्यक' नियुक्ति में कहा गया है कि चक्री सनत्कुमार देवलोक में गए। १. अद्वैव गता मोक्खं, सुभुमो बंभो य सत्तमिं पुढविं।
मघवं सणंकुमारो, सणंकुमारं कप्पं गता।। (आवश्यक नियुक्ति गा. ४०१)