________________
६५
आगमों के व्याख्यात्मक ग्रन्थ भद्रबाहु और नियुक्तिकार आचार्य भद्रबाहु एक नहीं हैं।
डॉ. घाटगे के अनुसार 'ओघ-नियुक्ति' और 'पिण्ड-नियुक्ति' क्रमशः दशवैकालिक नियुक्ति और आवश्यक नियुक्ति की उपशाखाएं हैं। परन्तु यह विचार प्रशस्त टीकाकार आचार्य मलयगिरि के विचार से नहीं मिलता। उनके अनुसार 'पिण्ड-नियुक्ति' दशवैकालिक नियुक्ति का ही एक अंश है; ऐसा पिण्ड-नियुक्ति की टीका में स्पष्ट उल्लेख मिलता है। आचार्य मलयगिरि दशवैकालिक नियुक्ति को चतुर्दश पूर्वधर आचार्य भद्रबाह की कृति मानते हैं। और पिंडैषणा नामक पांचवें अध्ययन पर बहु विस्तृत नियुक्ति हो जाने के कारण उसको अलग रखकर स्वतंत्र शास्त्र के रूप में 'पिण्ड-नियुक्ति' नाम दिया गया है, ऐसा मानते हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि 'पिण्डनियुक्ति' दशवैकालिक नियुक्ति का ही एक विस्तृत अंश है। स्वयं आचार्य मलयगिरि इसको सिद्ध करते हुए कहते हैं-'पिण्डनियुक्ति दशवैकालिक नियुक्ति के अंतर्गत होने के कारण ही इस ग्रन्थ के आदि में 'नमस्कार' नहीं किया गया है और दशवैकालिक नियुक्ति के मूल के आदि में नियुक्तिकार नमस्कारपूर्वक ग्रन्थ को प्रारम्भ करते हैं।
परन्तु टीकाकार का यह तर्क भी सुदृढ़ हो, ऐसा नहीं लगता। सर्वप्रथम तो 'दशवैकालिक नियुक्ति' के रचयिता प्रथम भद्रबाहु स्वामी ही हैं, ऐसा साधारणतः नहीं कहा जा सकता।
प्रचलित मान्यता के अनुसार इन नियुक्तियों के कर्ता एक ही माने जाते रहे हैं। मतभेद इतना ही है कि नियुक्तिकार प्रथम भद्रबाहु थे या द्वितीय भद्रबाहु । सभी नियुक्तियों के पारायण से तो वे द्वितीय भद्रबाहु की ठहरती हैं। आवश्यक नियुक्तिकार स्वयं कहते हैं कि 'मैं निम्नोक्त दस' नियुक्तियों का १. दशवैकालिकस्य च नियुक्तिश्चतुर्दशपूर्वविदा भद्रबाहुस्वामिना कृता, तत्र पिण्डैषणाभिधापञ्चमाध्ययननियुक्तिरति-प्रभूतग्रन्थत्वात् पृथक् शास्त्रान्तरमिव व्यवस्थापिता तस्याश्च पिण्डनियुक्तिरिति नामकृतं.....अत एव चादावत्र नमस्कारोऽपि न कृतो दशवैकालिकनियुक्त्यन्तरगतत्वेन शेषा तु नियुक्तिर्दशवैकालिक-नियुक्तिरिति स्थापिता। २. आवस्सगस्स दसकालियस्स तह उत्तरज्झमायारे। सूयगडे निज्जुत्तिं वोच्छामि
तहा दसाणं च ॥ कप्पस्स य निज्जुत्तिं ववहारस्सेव परमनिउणस्स। सूरियपण्णत्तीए वोच्छं इसिभासियाणं च । एतेसिं निज्जुत्तिं वोच्छामि अहं जिणोवदेसेणं
(आवश्यकनियुक्ति गाथा. ८४।८५८६)।