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आगमों के व्याख्यात्मक ग्रन्थ
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ने इसकी संस्कृति को सुरभित किया । मात्रा का तारतम्य इतिहासज्ञों से अज्ञात नहीं है। जैनेतर-धर्म-चिन्तकों के व्यावहारिक पक्ष की छाप जैन समाज पर पड़ी जो आज भी किसी न किसी रूप में अवस्थित है । इसी प्रकार जैन ऋषियों के आत्मपरक चिन्तन का प्रभाव अन्यान्य दर्शनों पर पड़ा ।
जैन-धर्म-ग्रंथों की संज्ञा 'आगम' है । वे जन- भाषा प्राकृत में लिखे गये हैं । उन पर अनेक व्याख्यात्मक ग्रन्थों का निर्माण हुआ है। मुख्यतः उनके चार विभाग हैं
१. निर्युक्ति
३. चूर्णि
२. भाष्य
४. टीका ।
उत्तरवर्त्ती काल में वार्तिक और टब्बे आदि व्याख्यात्मक ग्रन्थों का
प्रणयन हुआ । निर्युक्ति (निज्जुत्ति)
सूत्र' और अर्थ में निश्चित संबंध बतलाने वाली व्याख्या को निर्युक्ति कहते हैं अथवा निश्चय' से अर्थ का प्रतिपादन करनेवाली युक्ति को नियुक्ति कहते हैं । आगम के व्याख्यात्मक ग्रन्थों में यह सबसे प्राचीन है । ये प्राकृत भाषा की पद्यमय रचनाएं हैं । कहीं-कहीं निर्युक्ति को समझने के लिए भाष्य आदि की परम आवश्यकता होती है । क्योंकि व्याख्यात्मक ग्रन्थ होते हुए भी ये कहीं-कहीं बहुत ही संक्षेप में लिखी गई हैं। इनमें तत्कालीन विभिन्न दर्शनों के मतमतान्तर की परम्पराओं का इतिहास तथा अनेक ऐतिहासिक तथ्यों का संकलन हुआ है।
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ओघनिर्युक्ति में साधु-जीवन की दिनचर्या का अथ से इति तक बहुत ही रोचक व हृदयस्पर्शी विवेचन मिलता है ।
जर्मन विद्वान् खारपेन्टियर ने निर्युक्ति की परिभाषा करते हुए लिखा है - 'निर्युक्तियां, अपने प्रधान भाग से, केवल इंडेक्स का काम करती हैं । वे सभी विस्तृत घटनावलियों का संक्षेप में उल्लेख करती हैं ।'
१. सूत्रार्थयोः परस्परं निर्योजनं सम्बन्धनं निर्युक्तिः । - आव. नि. गा. ८२ । २. निश्चयेन अर्थप्रतिपादिका युक्तिर्नियुक्तिः -
- आचा. १।२ ।१ ।
३. उत्तराध्ययन की भूमिका, पृ. ५०-५१ ।