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आगम-सम्पादन की यात्रा
कथन करूंगा'
१. आवश्यक नियुक्ति, २. दशवैकालिक नियुक्ति, ३. उत्तराध्ययन नियुक्ति, ४. आचारांग नियुक्ति, ५. सूत्रकृतांग नियुक्ति, ६. दशाश्रुतस्कन्ध नियुक्ति ७. कल्प नियुक्ति ८. व्यवहार नियुक्ति, ९. सूर्यप्रज्ञप्ति नियुक्ति, १०. ऋषिभाषित नियुक्ति।
यह प्रमाण इन दस नियुक्तियों की एककर्तृक मान्यता को प्रमाणित करने के लिए उपयुक्त है। शेष यह रह जाता है कि यदि हम प्रथम भद्रबाहु को इन सबके रचयिता मानते हैं तो बहुत-सा विसंवाद आता है। कारण कि आवश्यक नियुक्ति में ऐसी घटनाओं और निह्नवों का उल्लेख हुआ है जिनका समय महावीर से लगाकर वीर-निर्वाण के ६०९ वर्ष पश्चात् तक उन्होंने स्वयं बतलाया है। दूसरी बात यह है कि आवश्यक नियुक्ति में स्वयं नियुक्तिकार 'वज्रस्वामी' को वन्दन करते हैं। काल-क्रम के अनुसार प्रथम भद्रबाह वीरनिर्वाण की दूसरी शताब्दी में और 'वज्रस्वामी छठी शताब्दी में हुए थे, इसलिए स्वयं विरोध आता है।
दूसरा तर्क आचार्य मलयगिरि ने उपस्थित किया है-'पिण्ड-नियुक्ति' के आदि में 'नमस्कार' नहीं किया गया है। अतः यह दशवैकालिक नियुक्ति का ही अंश है जिसको कारणवश स्वतंत्र ग्रन्थ की मान्यता दे दी गई। यह ठीक है। परन्तु नमस्कार करने की परम्परा बहुत पुरानी है, ऐसा नहीं लगता। छेदसूत्र या मूल सूत्रों का प्रारम्भ भी 'नमस्कार' पूर्वक नहीं हुआ है। टीकाकारों ने खींचातानीपूर्वक आदि मंगल, मध्य मंगल और अन्त मंगल की योजना की। मंगल वाक्य की परम्परा विक्रम की तीसरी शताब्दी के बाद की है। विषयसाम्य की दृष्टि से दशवैकालिक नियुक्ति और ‘पिण्डनियुक्ति' का समन्वय किया गया। परन्तु वह (पिण्डनियुक्ति) अन्यकर्तृक नहीं है इसका प्रमाण आचार्य मलयगिरि की टीका के सिवाय अन्यत्र नहीं मिला है।
जर्मन विद्वान् ‘विन्टरनित्स'२ के अनुसार ओघनियुक्ति, जिसके टीकाकार १. चोद्दस सोलस वासा चउद्दसवीसुत्तरा य दोन्नि सया।
अट्ठावीसा य दुवे पंचेव सया उ चोयाला॥ (आ.नि.गा. ७८२) पंचसया चुलसीता छच्चेव सता नवोत्तरा होति।
णाणुप्पत्तीय दुवे उप्पण्णा निव्वुए सेसा ॥ (आ.नि.गा. ७८३) २. Winternitz--of cit, p. 465.