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आगम- सम्पादन की यात्रा श्वेताम्बर तेरापंथी
आगम-ग्रंथों के प्रकाशन में दोनों संस्थान - जैन महासभा, कलकत्ता तथा जैन विश्व भारती, लाडनूं बहुत विशाल कार्य किया है। इस कार्य में सबसे पहले बहुश्रुत विद्वान्, आगम-ग्रंथों के प्रबंध संपादक श्री श्रीचंदजी रामपुरिया का अविरल योग मिला। उनका शासन के प्रति समर्पणभाव, आगम-साहित्य के प्रति निष्ठा और अथक परिश्रम के कारण यह सब कुछ हो पाया है। प्रारंभ में हमारे संघ के तत्त्वज्ञानी और आगमवेत्ता स्वर्गीय श्रीमदनचंदजी गोठी का भी योग रहा है ।
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इस महायज्ञ की सम्पूर्ति में छोटे-बड़े पचासों साधु-साध्वियों ने अपना श्रम दिया है और आज भी कुछ साधु-साध्वी इसमें अहर्निश लगे हुये हैं।
हम कार्य की त्वरा में इतना विश्वास नहीं करते, जितना हमारा विश्वास है कार्य की गुरुता में । जो आगम-ग्रंथ यहां से प्रस्तुत हुये हैं, वे आज भी अपने क्षेत्र के शलाकाका-ग्रंथ हैं।
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अन्यान्य क्षेत्रों में भी आगम-संपादन का कार्य हुआ है, हो रहा है । मैं उनके इस प्रयत्न का कम मूल्यांकन नहीं करता, किन्तु यह स्पष्ट कहना चाहता हूं कि ग्रंथों की केवल संख्यावृद्धि से कार्य की गुरुता नहीं नापी जा सकती । गुरुता का अंकन होता है - वैज्ञानिक दृष्टि से ग्रंथ के प्रस्तुतीकरण में। आज का युगमानस यही चाहता है कि वस्तु अल्प हो, पर वह हो युगबोध के अनुरूप ।
आगम-संपादन की शृंखला में यहां बत्तीस आगमों का मूलपाठ संपादित हो चुका है । ग्यारह अंगों का तथा अन्यान्य कुछ स्फुट आगमों का मूलपाठ प्रकाश में आ चुका है। शेष आगम प्रकाशन की प्रतीक्षा में हैं । जैन विश्व भारती ने इस गुरुतर दायित्व को ओढा है। यहां एक सुविधा यह है कि संस्थान की अपनी एक निजी प्रेस है, जो सभी सुविधाओं से सुसज्जित है । उसका भी विकास किया जा रहा है । अब यह संस्थान आगमों को प्रस्तुत करने में सक्षम है।
अब मैं श्री जैन श्वेताम्बर तेरापंथी महासभा तथा जैन विश्व भारती से प्रकाशित आगम साहित्य का दिग्दर्शन कराना चाहता हूं । उसका सामान्य विवरण इस प्रकार है
१. अंगसुत्ताणि भाग - १ (आयारो, सूयगडो, ठाणं, समवाओ ) । २. अंगसुत्ताणि भाग - २ ( भगवई ) ।