________________
दक्षिण यात्रा और आगम- सम्पादन
३१
गति-सापेक्ष है और आगम- सम्पादन- कार्य स्थिति - सापेक्ष । किन्तु हमें गति में स्थिति और स्थिति में गति को बनाए रखकर चलना है।'
बीदासर से हम जोधपुर की ओर चले । यात्रा में आगम-संबंधी कौन-से -साध्वी कार्य करने हैं, उनका निश्चय हुआ और तदनुसार सारे कार्यकर्त्ता साधु-स उनमें जुट गए।
प्रातः आठ-दस मील का विहार कर आचार्यश्री किसी गांव में विश्राम लेते। उस समय कुछ प्रवचन कर 'उत्तराध्ययन के समीक्षात्मक अध्ययन' का पुनः अवलोकन करते । आहार और विश्राम से शीघ्र ही निवृत्त हो, पाठसंशोधन में लग जाते। आगम- सम्पादन कार्य के प्रधान सम्पादक निकाय सचिव मुनिश्री नथमलजी (आचार्य महाप्रज्ञ) तथा उनके सहयोगी सन्त भी पाठ-संशोधन में लग जाते। लगभग दो घंटों का समय इसमें लगता । इस यात्रा में रायप्रश्नीय तथा औपपातिक सूत्रों के निर्धारित पाठ का पुनः अवलोकन किया गया। इनका पाठ - निर्धारण कई वर्षों पूर्व हो चुका था, किन्तु उस समय 'जाव' आदि संक्षिप्त-स्थलों की पूर्ति नहीं की गई थी। इस बार सब पूरक अंश यथास्थान नियोजित कर दिए गए। बीदासर - चतुर्मास में भगवती सूत्र के पाठ - संशोधन का कार्य प्रारम्भ किया था । किन्तु भगवती के अनेक स्थलों में रायप्रश्नीय, औपपातिक, प्रज्ञापना आदि -आदि सूत्रों की 'भोलावण' 'जाव' आदि के द्वारा दी गई । अतः हमने मूल भगवती के पाठ - संशोधन का कार्य स्थगित कर पूरक सूत्रों का पाठ संशोधन प्रारंभ किया ।
आज के विद्वानों की यह सामान्य धारणा है कि बौद्ध साहित्य जितना विशाल और सरस है उतना जैन साहित्य नहीं है । यह धारणा कुछ दृष्टि से ठीक भी है। आज तक जितने भी मूल पाठ के संस्करण प्रस्तुत हुए हैं, वे प्रत्येक आगम को पूर्णरूप से प्रकट नहीं करते। उनमें वही संक्षिप्त शैली अपनाई गई है, जो कई शताब्दियों पूर्व सम्मत थी । इसी संक्षेपीकरण के कारण कई स्थल इतने नीरस और भ्रामक हो गए कि आज उनकी यथार्थ स्थिति को ढूंढ निकालना भी कठिन हो गया है । हमने यथासम्भव सभी पाठों को पूरा कर देने का प्रयत्न किया है। इस प्रणाली से ग्रंथ का कलेवर अवश्य बढ़ा है, किन्तु उसकी सरसता भी उसी परिमाण से वृद्धिंगत हुई है । भगवती का पाठ - संशोधन करते समय हमें अनेक बार यह अनुभव हुआ कि जो स्थल संक्षिप्त होने के