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आगम-सम्पादन की यात्रा के पश्चात् उन्होंने आगम-कार्य देखने की जिज्ञासा व्यक्त की। आचार्यप्रवर प्रवचन देने पधार गए। मुनिश्री नथमलजी ने उन्हें आगम-कार्य की जानकारी दी। बीच-बीच में मुनिश्री अपनी जिज्ञासाएं भी रखते । दलसुखभाई अपने ढंग से उनका समाधान करते। दलसुखभाई ने भी आगम संबंधी अनेक जिज्ञासाएं व्यक्त की और कहा–'मैंने पुण्यविजयजी से भी इन जिज्ञासाओं का समाधान चाहा। उन्होंने सुन्दर समाधान दिया पर मेरी जिज्ञासा बनी ही रही। आप अपनी ओर से इनका क्या समाधान देते हैं?' मुनिश्री नथमलजी ने प्रधानतः श्रीमज्जयाचार्य को सामने रखकर उन्हीं के ग्रंथों के आधार पर उन्हें समाधान दिया। ‘भगवतीजोड़' जो कि श्रीमज्जयाचार्य की अद्वितीय कृति है, के कई स्थल उन्हें सुनाए और कहा-'हमने आगमिक टीकाओं का सूक्ष्म निरीक्षण किया है। परन्तु श्रीमज्जयाचार्य जैसा प्रशस्त टीकाकार हमने दूसरा नहीं देखा। श्रीमज्जयाचार्य में तत्त्व की गहराई में जाने की जो सूक्ष्म मेधा थी वह अन्य टीकाकारों में नहीं पायी जाती यह हम दावे के साथ कह सकते हैं। आगम संबंधी उनके निर्णय आज भी जैन-जगत् के प्रकाश-स्तम्भ माने जाने योग्य हैं। परन्तु यह हमारी त्रुटि ही समझिये कि हमने उनका वास्तविक रूप लोगों के सामने रखने का इतना प्रयास नहीं किया जितना करना चाहिए था।' दलसुखभाई ने श्रीमज्जयाचार्य के ग्रंथ देखे, पढ़े और कुछ चिन्तन के बाद कहा-'पता चलता है कि आपके सम्प्रदाय में आगमों की पुष्ट परम्परा रही है। श्रीमज्जयाचार्य ने आगम-विषयक जो कार्य किया है, वह सभी जैन सम्प्रदाय को मान्य हो सकता है। आवश्यकता है उनकी कृतियों को प्रकाश में लाया जाए।'
आगे उन्होंने कहा-'आजकल स्थिति ऐसी बन रही है कि कई जैन श्रमण परिश्रम तो करना नहीं चाहते, परन्तु अपना नाम उस कृति में अंकित देखना चाहते हैं, चाहे वह किसी के द्वारा सम्पन्न हुई हो। यह मनोभावना खटकती है। परन्तु आपका कार्य देखकर तो मुझे परम हर्ष होता है। यदि इसी निष्ठा से आपने सम्पूर्ण आगम-साहित्य का पारायण किया तो वह दिन भी दूर नहीं जब कि जैन-जगत् ही नहीं, सारा संसार जैन-वाङ्मय को पूर्णरुचि से पढ़ेगा और अन्य जैनेतर विद्वान् भी इस दिशा में कार्य करने के लिए प्रोत्साहित होंगे। आज भी जैनेतर विद्वान् चाहते हैं कि प्राकृत वाङ्मय सामने आए और उसके आधार पर प्राचीन भारत की गौरवास्पद स्थिति का दिग्दर्शन हो। यदि हम जैन लोग